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उपा. यशोविजयरचिते भासत इति चिन्तामणिकृतोक्त युक्तम् । अन्यथा निरूपितत्वसंसर्गेण ज्ञानप्रकारका श्रयत्वविशेष्यकावान्तरशाब्दबोधे तद्धेतुताकल्पने गौरवात् । न च सामान्यतो हेतुत्वं क्लप्तमेवेति का गौरवमिति वाच्यम् , तथापि तत्तदाकांक्षाज्ञानादिहेतुताकल्पने गौरवादिति । मैवम् , तथा सति 'जानाती'त्यत्राख्यातार्थसङ्ख्याऽनन्वयप्रसङ्गात् , भावनान्वयिन्येवाख्यातार्थसख्यान्वयात् । मानी गयी है । इसीलिए “तण्डुलं पचति" इत्यादि वाक्य से “तण्डुलकर्भक पाकानुकूलकृतिवाला चैत्र” इसतरह का बोध होता है । तब “घटो नष्टः” इस स्थल में "नश" धातु का नाशवंत रूप जो लक्ष्यार्थ है, तत्प्रकारक अभेद संसर्गक घट विशेष्यक बोध कैसे होगा? घट की उपस्थिति तो आख्यातजन्य नहीं होती है, किन्तु नामजन्य हाती है, इसलिए कारण के अभाव में नाशवंतप्रकारक घटविशेष्यक बोधरूप कार्य भी नहीं होगा-"
परन्त बीच में यह कहा हआ ठीक नहीं है, क्योंकि शक्तिप्रयोज्यधातजन्यउपस्थितिविषयधात्वर्थ प्रकारक बोध के प्रति ही आख्यातजन्य उपस्थिति कारण बनती है। लक्षणाप्रयोज्य धातुजन्य उपस्थिति विषयधात्वर्थप्रकारक बोध के प्रति आख्यातजन्य उपस्थिति कारण ही नहीं है। तब तो नामजन्य उपस्थिति विषय धट में नाशवंतरूप “नश" धातु के लक्ष्यार्थ का अन्वय अभेद सम्बन्ध से हो जायगा और "नष्टो घटः” इस वाक्य से अभेदसंसर्गक नाशवंतप्रकारक घट विशेष्यकबोध ही होगा । धातु के लक्ष्यार्थप्रकारक नामार्थ विशेष्यक बोध को चिन्तामणिकारने भी मान्य किया है, इसीलिए "जानाति" इत्यादि स्थल में "ज्ञा' धातु की ज्ञानवंत में लक्षणा कर के ज्ञानवंतरूप लक्ष्यार्थ का चैत्र आदिरूप नामार्थ में अन्वय हो सकता है । "जानाति" इत्यादि स्थल में आख्यातार्थ भासता ही नहीं है क्योंकि आख्यात का अर्थ जो कृति, उस में "ज्ञा" धातु का मख्यार्थ जो ज्ञान उस का अनुकूलत्वसम्बन्ध से अन्वय सम्भव नहीं है, क्योंकि "ज्ञान से इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा से कृति उत्पन्न होती है" यह तार्किकों की प्रक्रिया है. इस के अनुसार ज्ञान तो इच्छा द्वारा कृति का जनक बनता है किन्तु कृति ज्ञान की जनिका नहीं बनती है। अतः ज्ञान का अनुकूलत्व सम्बन्ध से कृति में अन्वय हो, ऐसी योग्यता कृति में नहीं है, इसलिए "ज्ञानानुकूल कृतिवाला चैत्र” ऐसा बोध "चैत्रो जानाति" इस वाक्य से होता नहीं है । अतः "ज्ञा' धातु की ज्ञानवंत में लक्षणा कर के उस के लक्ष्यार्थ का चैत्र में अन्वय करना ही ठीक है।
यदि ऐसा नहीं करे, किन्तु “जानाति" इत्यादि स्थल में "ज्ञा" धातु का अर्थ ज्ञान ही विवक्षित रखें और आख्यात की आश्रयत्व में लक्षणा करें और उस में निरूपितत्व सम्बन्ध से ज्ञान को विषय माने तो निरूपितत्वसंसर्गक ज्ञानप्रकारक आश्रयत्वविशेष्यक. "निरूपितत्व सम्बन्ध से ज्ञानविशिष्ट आश्रयत्व" इसप्रकार का, अवान्तर शाब्दबोध मानना पडेगा और विशेष्यतासम्बन्ध से ज्ञानप्रकारक बोध के प्रति विशेष्यतासम्बन्ध से आख्यातजन्य आश्रयत्व की उपस्थिति को कारण मानना पडेगा और 'आश्रयत्व निरूपितत्वसम्बन्ध से ज्ञानवाला है-इसतरह के योग्यताज्ञान को भी कारण मानना होगा । इस में गौरवरूप दोष उपस्थित होगा । “ज्ञा" धातु की ज्ञानवंत में लक्षणा कर के नामार्थ के