Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 224
________________ नयरहस्ये कारणता बिमर्शः अथ क्रियमाणमित्यत्र वर्त्तमानत्वमानशोऽर्थः कृतमित्यत्र चातीतत्वं निष्ठार्थः, तत्र वर्त्तमानत्वं विद्यमानकालवृत्तित्वं, अतीतत्वं च विद्यमानध्वंसप्रतियोगि कालवृत्तित्वम् विद्यमानत्वं च तत्तत्प्रयोगाधारत्वं, प्रयोगत्वं च तत्तदर्थोपस्थित्यनुकूलव्यापारत्वं लिप्युच्चारणादिसाधारणं तदादेर्बु द्विस्थत्ववल्लडादेः शक्यतावच्छेदकतत्तत्कालानुगमकम्, तच्च वर्त्तमानत्वमतीतत्वं वा धात्वर्थे ऽन्वेति धातूत्तरप्रत्ययजन्यकालप्रकारक बोधे सिद्ध होता है | इस स्थिति में कारणोत्तरकाल में कार्य की सिद्धि नहीं हो सकेगी, अतः कारण के पश्चात् कार्य न होगा यह जो दोष दिया था वह युक्त ही है, इसलिए क्रियमाण कृत ही है' यह मानना युक्ति संगत है । | पूर्वपक्ष चालु] [ अथ क्रियमाणम] यहाँ यह आशंका उठ सकती है कि २०७ क्रियमाण को कृत ही माना है, यह युक्त नहीं है क्योंकि क्रियमाण शब्द 'कृ' धातु से आन प्रत्यय लगने पर सिद्ध होता है, वह आनश प्रत्यय किया की वर्तमानता विवक्षित होने पर लगाया जाता है । तथा 'कृत' शब्द 'कृ' धातु से 'त' प्रत्यय लगाने पर बनता है, वह 'त' प्रत्यय 'निष्ठा' शब्द से भी व्याकरण शास्त्र में व्यवहृत होता है । निष्ठाप्रत्यय क्रिया में अतीतत्व विवक्षा होने पर धातु के बाद प्रयुक्त होता है । क्रिया में वर्तमानत्व यही है कि विद्यमानकाल में उस क्रिया का रहना । काल में विद्यमानत्व “तत्तत्प्रयोगाधारत्वरूप" माना गया है, जिस काल में “पचति" आदि शब्दों का प्रयोग होता है, वह काल प्रयोगाधारकाल कहा जाना है । 'प्रयोग' शब्द का अर्थ है तत्तत् अर्थों की उपस्थिति जिस व्यापार से होवे, वह व्यापार । वह व्यापार कहीं पर लिपिरूप, कहीं पर उच्चारणरूप, कहीं पर अक्षिहस्तव्याशरात्मक संकेतरूप होता है क्योंकि इन में से किसी एक व्यापार के रहने पर ही अर्थ की उपस्थिति होती है । उक्त विद्यमानत्व, जो अर्थोपस्थित्यनुकूलव्यापाररूपप्रयोगाधारत्वात्मक है, वही "लद आनश" आदि प्रत्ययों का जो शक्यार्थ है विद्यमानकालवृत्तित्वात्मक वर्तमानत्व, उस के शक्यतावच्छेदक सूक्ष्मकालों का अनुगमक होता है । आशय यह है कि 'तद्' आदि सर्वनाम पद की शक्ति बुद्धिस्थत्वोपलक्षिन धर्मावच्छिन्न अर्थ में मानी गई है, वे धर्म घटत्व, पटत्वादिरूप होते हैं, जो प्रयोक्ता की बुद्धि में उपस्थित रहते हैं, वे ही घटत्वादि तत्पदशक्यार्थ घटपटादिवृत्तिशक्यता के अवच्छेदक माने जाते हैं, उन सभी धर्मों का अनुगमक धर्म बुद्धिस्थत्व बनता है । इसलिए अननुगमरूप दोष को अवसर नहीं आता है । उसी तरह प्रस्तुत में विद्यमानकालवृत्तित्वरूप वर्त्तमानत्व लट् आदि प्रत्यय का शक्यार्थ है, उस में वृत्तित्वांश में विशेषण निरूपितत्व सम्बन्ध से कालखंड होते हैं, जो सूक्ष्मरूप से अनेक जाने गए हैं। उन सभी कालों का अनुगनक धर्म यदि कोई न माना जाय तो शक्यतावच्छेदक जो असंख्य सूक्ष्मकाल पडते हैं, उन में अनुगमरूप दोष का अवसर आता है । विद्यमानत्व को छोडकर कोई दूसरा धर्म नहीं मिलता है जो उन काहों का अनुगम कर सके, अतः उन कालों में विशेषणी

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