Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 223
________________ २०६ उपा० यशोविजयरचिते ही क्रिया का फल है, वह तो हो ही चुकी है यदि कार्य निष्पन्न है ?' - इस का समाधान यह है कि क्रिया से ही कार्य की निष्पत्ति होती है, क्रिया के बिना कार्य में निष्पन्नत्व हो ही नहीं सकता है, अतः क्रिया ही कार्य में निष्ठा को अर्थात् निष्पत्ति को उत्पन्न कर के कार्य में कृतत्व को लाती है, इसलिए क्रिया का वैफल्य नहीं है । यदि यह कहा जाय कि - "क्रियमाण कृत ही है ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि इस में अन्योन्याश्रय दोष लगता है । जैसे, कृत को ही क्रिया उत्पन्न करती है, अकृत को तो क्रिया उत्पन्न कर ही नहीं सकती है, कारण, अकृत कार्य की सत्ता ही इस पक्ष में नहीं मानी गई है, तब तो कृत को ही क्रिया उत्पन्न करती है और क्रिया से जनित होने पर हो कृत कहा जाता है इसतरह क्रिया से जनन होने में कृतत्व की अपेक्षा है और कृतत्व होने में क्रिया से जनन की अपेक्षा है अतः अन्योन्याश्रय स्पष्ट है-" परन्तु यह कहना ठीक नहीं है । कृत कार्य के प्रति क्रिया को जो कारणता है वह इस ढंग से नहीं है कि कृतत्वावच्छिन्न के प्रति घटक्रियात्वावच्छिन्न कारण है । यदि इसतरह का कार्यकारणभाव होता, तो अन्योन्याश्रयदोष की सम्भावना रहती । परन्तु इसतरह का कार्यकारणभाव यहाँ अभिभूत है कि घटत्वावच्छिन्न के प्रति घटक्रिया कारण है । तब तो घटक्रिया से घटजनन में घटत्व की अपेक्षा होने पर भी कृतत्व की अपेक्षा नहीं रहती है । इसलिए अन्योन्याश्रयदोष का उद्भावन करना ठीक नहीं है, क्योंकि कृतत्व का कार्यकारणभाव में प्रवेश ही नहीं होता है । घटादि कार्य में क्रियोत्पन्नत्व होने से ही कृतत्व अर्थतः सिद्ध हो जाता है । जहाँ क्रियोत्पन्नत्व होता है वहाँ पर कृतत्व भी रहता है, इस व्याप्ति के बल पर ही कार्य में कियोत्पन्नत्वहेतुक अनुमान से कृतत्व की सिद्धि हो जाती है। यदि क्रियमाण को कृत न माने तो क्रियासमय में कार्य ही नहीं रहता है, तथा क्रिया से पूर्वकाल और पश्चात् काल में कारण ही नहीं रहता है इसलिए कार्य कभी हो ही नहीं सकता है, क्योंकि कार्य कारण में एककालवृत्तिस्वरूप सामानाधिकरण्य जो अपेक्षित है वही नहीं घटता है । अतः 'क्रियमाण कृत ही है' ऐसा मानना आवश्यक है। यदि यह कहा जाय कि - "कार्याव्यवहितपूर्ववृत्ति को ही कारण माना जाता है, अतः उत्तरक्षण में कारण के न रहने पर भी कार्य होने में काई बाधा देखने में नहीं आती । व्याप्ति भी "यदा कारणं तदा कार्य" इसीतरह की मानेंगे। तब तो वह कार्य नहीं होगा" इसतरह का दोष देना अयुक्त है ।" - परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है । सामग्री समय में ही कार्यव्याप्यता मानना उचित है क्योंकि "यदा सामग्री तदा कार्य" ऐसी व्याप्ति मानने में उत्तरत्व का प्रवेश व्याप्ति की कुक्षि में नहीं करना पडता है । “यदा सामग्रीउत्तरत्वं तदा कार्य" इसतरह की व्याप्ति मानने में उत्तरत्व का प्रवेश करना पडता है इसलिए गौरव होता है । इसीतरह “यदा कारणाभावः तदा कार्याभावः " इस व्यतिरेक व्याप्ति में भी लाघव रहता है क्योंकि उत्तरत्व का प्रवेश नहीं करना पडता है । उत्तरत्व से घटित अन्वय व्यामि मानने पर व्यतिरेकव्याप्ति में “यदा कारणोत्तरत्वाभावः तदा कार्याभाव:" इसतरह उत्तरत्व का प्रवेश करना पडेगा, इस से गौरव होगा अतः उत्तरत्व से अवटित व्याप्ति को ही मानना उचित है, तब तो "यदा कारणाभावः तदा कार्याभाव:" इसतरह की व्याप्ति मानने पर कारणाभाव में ही कार्याभावव्याप्यत्व

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