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नयरहस्ये कारणताविचारः
२०३ अथैवं चक्रभ्रमणाद्यपलक्षितदीर्घ क्रियाकाले कुतो न दृश्यते घटः ? यदि क्रियका बाधक माना गया है । “परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणधर्मयोः एकत्र समावेशः सांकर्यम्” यह सांकर्य का लक्षण है। यह लक्षण कुर्वदरूपत्व में भी घटता है । बीजत्व के साथ सांकर्य इसप्रकार है-जहाँ बीजत्व नहीं रहता है वहाँ दण्डादि में कुर्वदरूपत्व रहता है, अतः कुर्वदूपत्वधर्म बीजत्वाभाव का समानाधिकरण बनता है तथा कुर्वदरूपत्व का अभाव कोठार के बीज में रहता है और वहाँ बीजत्व तो रहता ही है अतः बीजत्वधर्म कुर्वदूरूपत्वाभाव का समानाधिकरण होता है। इन दोनों धर्मो का समावेश क्षेत्रगत कुर्वदरूपात्मक बीज में होता है क्योंकि क्षेत्रगत बीज में कुर्वदरूपत्व और बीजत्व ये दोनों धर्म रहते हैं। अतः बीजत्व के साथ कुर्वदरूपत्व का सांकर्य कुर्वदुरूपत्व की जातिरूपता का बाधक है । इसरीति से तार्किक लोग कुर्वदुरूपत्व में अप्रामाणिकता सिद्ध करते हैं। अनवस्था को भी जातिबाधक मानते हैं, इसलिए घटत्वादि जातियों में घटत्वत्वादि धर्म जातिरूप नहीं माने गए हैं । यदि जातियों में भी जातिरूप धर्म हो तो तादृशजाति सहित अन्यजातियों में भी कोई जातिरूप धर्म हो सकेगा, उस द्वितीय-तृतीय जातियों में भी कोई जातिरूप धर्म मानने पर अनवस्था आ जाती है । "रूपहानि” पद से तार्किकाभिमत विशेषों का स्वरूप जो स्वतो व्यावर्तकत्व उन को मान्य है, उस की हानि हो जायेगी । विशेषों में यदि विशेषत्व को जाति माना जाय तो वह विशेषत्व जाति ही विशेषों की व्यावृत्ति का कारण बन जायगी क्योंकि जातिमान् पदार्थ का व्यावर्तन जाति द्वारा ही हो जाता है। जैसे-गो पदार्थ का अश्व पदार्थ से व्यावर्तन गोत्व जाति द्वारा ही होता है। फलतः विशेषों की विशेषरूपता खंडित हो जाने के भय से रूपहानि भी जातिरूपता में बाधक मानी गयी है। “असम्बन्ध" पद से, प्रतियोगिता-अनुयोगिता एतद् अन्यतर सम्बन्ध से समवाय का अभाव विवक्षित है, वह जातिरूपता में बाधक है । इसीलिए समवायत्व और अभावत्व ये धर्म जातिरूप नहीं माने गए हैं क्योंकि समवाय और अभाव ये दोनों पदार्थ समवाय सम्बन्ध से कहीं रहते नहीं हैं, किन्तु विशेषणतात्मक या विशेप्यतात्मक स्वरूपसम्बन्ध से ही रहते हैं। इसलिए प्रतियोगितासम्बन्ध से समवाय यह समवाय तथा अभावपदार्थ में नहीं रहता है । इसीतरह समवाय और अभाव में भी कोई भी वस्तु समवाय सम्बन्ध से नहीं रहती है, जो भी समवायत्व, अभावत्व, पदार्थ त्व. प्रमेयत्वादि धर्म उन में रहते हैं, वे स्वरूप सम्बन्ध से ही रहते हैं । इसलिए समवाय अनुयोगितासम्बन्ध से भी समवाय और अभाव, में नहीं रहता है, अतः प्रतियोगिताअनुयोगिता एतद अन्यतर सम्बन्ध से समवाय का अभाव, समवाय में रहता है और अभाव में भी रहता है, वह अभाव जातिरूपता में बाधक बनता है, इसलिए समवायगत
वायत्वरूप धर्म और अभावगत अभावत्वरूप धर्म जातिरूप नहीं होते है। यह नैयायिकों का सम्प्रदाय है, जो प्रकृत में उपयोगी होने के कारण यहाँ पर दिखा दिया गया है ।
[ चक्रभ्रमणादि दीर्घ क्रियाकाल में घटानुपलब्धि का रहस्य ] [अथवं] यहाँ यह शंका उठ सकती है कि 'क्रियमाण अर्थात् वर्तमान क्रियाधिकरणक्षण में होनेवाला कार्य नियमतः यदि कृत ही माना जाय तो घट बनाने की क्रियाओं