________________
२०२
उपा. यशोविजयरचिते
यह आपत्ति दी जाय कि-"घटोत्पत्ति से पूर्वक्षण में दण्डादि में यदि कुर्वदरूपात्मक सूक्ष्म क्रिया रहती है या नहीं ? यदि पूर्वक्षण में सूक्ष्म क्रिया की सत्ता मानी जाय तो, घटोत्पत्ति से पूर्वक्षण में भी घटोत्पत्ति का प्रसंग आवेगा । यदि पूर्वकाल में मुक्ष्म क्रिया की सत्ता न मानी जाय तो उस में कारणत्व ही नहीं आवेगा क्योंकि 'कार्य से अव्यव. हित पूर्वक्षण में रहना, यही कारणता पदार्थ है, वह तो उस सूक्ष्मक्रिया में घटता नहीं है, क्योंकि उस की सत्ता पूर्वक्षण में नहीं मानी गयी है ?"-तो इस आपत्ति का समाधान यह है कि कार्याव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्व को कारणता का स्वरूप नहीं मानते हैं, किन्तु कार्यव्याप्यतावच्छेदक परिणामविशेष को ही कारणता का स्वरूप मानते हैं । तथाविध परिणामविशेष से युक्त दण्डादि ही कारण या करण कहा जाता है। जिस जिस काल में दण्डादि तथाविधपरिणाम युक्त होते हैं, उस उस काल में घटादि कार्य होते ही हैं, इमलिए तथाविध परिणामयुक्त दण्डादि, घटादिरूप कार्य के व्याप्य हुए और दण्डादि में रहा हुआ तथाविधपरिणामविशेष घटादिकार्यनिष्ठ व्यापकतानिरूपित व्याप्यता का अवच्छेदक भी बनता है । तथाविध परिणाम को कुर्वदरूपत्व कहा जाता है । तथाविधपरिणामरूप कारणता नियमतः कार्यसमकालवृत्ति ही होती है। अतः घटोत्पत्ति से पूर्व में घटोत्पत्ति का आपत्ति नहीं आती है और दण्डादि में कारणता की अनुपपत्ति भी नहीं है। उक्त परिणामविशेषरूप कारणता में नियमतः कार्यसहवृत्तिता होने के कारण कुर्वदरूपत्व भी प्रमाणसिद्ध हो जाता है क्योंकि उक्त परिणाम में कार्य निष्ठव्यापकतानिरूपितव्याप्यतावच्छेदकत्व ही कुर्वदरूपत्व का साधक बन जाता है। ___ अत एव तार्किकों का यह कथन-बीजत्वादि के साथ सांकर्य होने से जातिरूप कुर्वद्रूपत्व की सिद्धि न होने से कुर्वदरूपत्व अप्रमाणिक है-इस कथन का भी निरास हो जाता है, क्योंकि सांकर्य के कारण जातिरूप कुर्वदरूपत्व की सिद्धि न होने पर भी परिणामविशेष कुर्वदरूपत्व की सिद्धि कार्यव्याप्यतावच्छेदकत्व के द्वारा हो ही जाती है, इसलिए वह प्रामाणिक ही है।
[ कुर्वद्रूपत्व में जातिसांकर्य की स्पष्टता ] यहाँ इतना जान लेना आवश्यक है कि सांकर्य प्रयुक्त जातिरूपता का अभाव कुर्वदरूपत्व में कैसे आता है, तथा सांकर्यपदार्थ क्या है और सांकर्य से भिन्न और भी कुछ जातिरूपता में बाधक माना है या नहीं, यदि माना है तो वे क्या हैं ? इस का समाधान यह है कि 'किरणावली' ग्रन्थ में जातिबाधक पदार्थो का संग्रह किया गया है "व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं संकरोऽथानवस्थितिः । रूपहानिरसंबन्धो जातिबाधकसंग्रहः ।" इस के अनुसार जिस धर्म का आश्रयव्यक्ति एक ही हो, वह धर्म जातिरूप नहीं माना जाता है । जैसे-आकाशत्व धर्म का आश्रय आकाश एक ही है, इसलिए आकाशत्व जाति नहीं है । तुल्यत्व, स्वभिन्नजातिसमनियतत्वरूप यहाँ विविक्षित है, वह भी जातिरूपता का बाधक है अतः कम्युग्रीवादिमत्त्व जातिरूप नहीं माना जाता, क्योंकि कम्युग्रीवादिमत्त्व से भिन्न जाति घटत्व है और घटत्व का समनियत अर्थात् समव्यापक कम्बुग्रीवादिमत्त्व है। यद्यपि घटत्व, कलशत्व भी समनियत ही हैं तथापि उन में परस्परभेद नहीं माना जाता है, इसलिए वे दोनों एक जातिरूप हैं । संकर पद से सकी विधक्षिा है, जो जातिरूपता