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उपा. यशोविजयरचिते अत एव क्रियासिद्धथैव कुर्वपत्वोपपत्तौ ‘क्रियमाणं कृतमेवे ति वदन्ति । न चैवं कृतकरणाऽसमाप्तिः सिद्धस्यापि साधने करणव्यापारानुपरमादिति वाच्यम् , कार्यमुत्पाद्य क्रियोपरमेण तत्समाप्तः । न च यादृशव्यापारवतां दण्डादीनां पूर्व सत्त्वं, तादृशानामेव तेषां क्वचिद् घटोत्पत्त्यनन्तरमपि सम्भवे, तदा तदुत्पत्तिप्रसङ्ग इति वाच्यम् , स्थूलतत्सत्वेऽपि सूक्ष्मक्रियाविगमात् । न च तक्रियाया घटोत्पत्तेः प्राक्सत्वे तदापि तदुत्पत्तिप्रसङ्गोऽसत्त्वे च कार्याऽव्यवहितपूर्ववृत्तित्वाऽभावेन कारणत्वानुपपत्तिरिति वाच्यम् , कार्यव्याप्यतावच्छेदकपरिणाम विशेषरूपकारणतायाः कार्यसहवृत्तितानियमात् । अत एव कुर्वद्रूपत्वमप्रामाणिकम् , बीजवादिना सार्यात्जातिरूपतदसिद्धेरिति निरस्तम् । से लेकर “गम्भीर नयमतम कियदिह विविच्यते'...यहाँ तक के ग्रन्थ से पूर्वपक्ष उत्तर. पक्ष द्वारा चरमकारण में ही कारणत्व का समर्थन किया गया है । इस समर्थन में क्षणिकत्ववादी बौद्धमत का भी आश्रय लिया गया है। उस के बाद व्यवहाराभिमत कारणों में कारणत्व का व्यवस्थापन स्थिरवाद को लेकर किया गया है। इतना संदर्भ यहाँ समझ लेना उचित हागा । अप क्रियानयवादी कहता है कि कार्योत्पादन में जो समर्थ होता है, वह अपने कार्य को करने में विलम्ब अर्थात् कालक्षेप नहीं करता है और किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा नहीं रखता है। जैसे-खेत में बोया गया बीज अंकुर को उत्पन्न करता ही है और अंकुर उत्पन्न करने में वह विलम्ब भी नहीं करता है, तथा अन्य किसी सहायक की अपेक्षा भी नहीं करता है, इसलिए अंकुररूप कार्य के प्रति वह बीज कर्वदरूप कहा जाता है। वही चरमकारण है और कारणता भी उसी में रहती है । कोठार में पड़ा हुआ बीज यदि अंकुर को उन्पन्न करने में समर्थ होता, तो जरूर अंकुर को विलम्ब किए बिना उत्पन्न कर देता, सो तो देखने में आता नहीं है, इसलिए वह शिलाखंड के जैसे अंकुर को उत्पन्न करने में बिलकुल असमर्थ है, अतः अंकुर के प्रति कारणता उस में नहीं हो सकती है । यदि ऐसा कहा जाय कि-'मिट्टी और जल का संयोगरूप सहकारी कारणों की उपस्थिति में कोठारगत बीज में सामर्थ्य आ जाता है और तब वह भी अंकुर को कर देता है'-परन्तु ऐसा कहना युक्त नहीं है क्योंकि यदि उस में स्वतः सामर्थ्य नहीं है तो सैकडों सहकारीओं का सयोग हो सामर्थ्य नहीं आ सकता है । जैसे-शिलाखंड में जल-मिट्टी का संयोग आदि कितने भी सहकारीओं का योग होने पर भी सामर्थ्य नहीं आता है क्योंकि उस में अंकरजनन सामर्थ्य स्वतः नहीं है। दूसरी बात यह है कि कोठार के बीज में सहकारी के योग से सामर्थ्य होता है यह बात सम्भवित भी नहीं है क्योंकि सहकारीओं से यदि कुछ उपकार या विशेष का आधान कोठार के बीज उपर नहीं होता तो वह सहकारीओं की अपेक्षा ही क्यों करेगा ? यदि कुछ उपकार कोठारगत बीज में सहकारीओं के द्वारा होता है. ऐसा मान ले तो उस सहकाररूप कार्य करने में उन सहकारीओं को अन्य सहकारीओं