Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 210
________________ नयरहस्य एवम्भूतनयः सिद्धोऽप्येतन्नये सत्त्वयोगात् सत्त्वः, अतति सततमपरपर्याया। गच्छतीत्यात्मा च स्यादेव । अस्याप्युपदर्शिततत्वो भावनिक्षेप एवाभिमतः । तदेव लक्षिताः सप्तापि नयाः॥ एतेषु च यद्यपि क्षणिकत्वादिसाधने नित्यत्वादिपराकरणमेकान्तानुप्रवेशादप्रमाणम्, तथापि परेषां तक इव प्रमाणानां स्वरुचिविशेषरूपनयानामनुग्राहकत्वादुपयुज्यते इति सम्भाव्यते । तत्त्व तु बहुश्रुता विदन्ति ॥ धारण एवम्भूत की दृष्टि से विरुद्ध नहीं है । अतएव इन्द्रियरूपप्राण का कभी कभी उपघात हो जाता है तो भी आयुष्कर्म के उदयमात्र से जीवन का निश्चय बना रहता है। दिगम्बरलोग यदि यह शंका करें कि-'जीव के प्रति औदायिकभावमात्र का ग्राहक एवम्भूत होवे, तो आप के मत में भी मलय गिरि सूरि आदि आचार्यों ने भाव सम्बन्ध से जो सिद्ध में भी जीवत्व का कथन किया है, वह कैसे सङ्गत होगा? एवम्भूत की दृष्टि से तो सिद्ध में जीवत्व नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह भावप्राण की विवक्षा जीव में नहीं करता है।"-तो इस का समाधान यह है कि मलयगिरि सूरि आदि आचार्यो का कथन एवम्भूत के अभिप्राय से नहीं, किन्तु नैगमादि नयों के अभिप्राय से किया है और नैगमादिनय तो औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक तथा पारिणामिक इन पाँचों प्रकार के भावों को जीव में मानते हैं । इसी अभिप्राय से ही प्रज्ञापना आदि ग्रन्थों में जीव में जीवनपर्याय सदा होने के कारण जीव को भी शाश्वत बताया गया है । हाँ, दिगम्बरलोग प्रस्थकन्याय से अति विशुद्ध नगमभेद के अभिप्राय से “तिक्काल चदुपाणा०" इत्यादि स्वग्रन्थस्थपूर्वोक्त गाथा का व्याख्यान करते हो और सिद्ध में ही जीवत्व का प्रतिपादन करते हो, तो हमें कोई हर्ज नहीं है, एवम्भूत के अभिप्राय से सिद्ध में जो जीवत्व का कथन दिगम्बरों का है, उसी में हमलोगों का विरोध है । छोटी सी बात के लिए अब अधिक चर्चा करना निष्फल होने के कारण उचित नहीं है। (सिद्धोऽप्येतन्नये) एवम्भूतनय की दृष्टि से सिद्ध को जीव नहीं कहा जाता, क्योंकि सिद्ध में प्राणधारण क्रियारूप औदयिकभाव को एवम्भूत नहीं मानता है। किंतु एवम्भूतनय के मत में सत्त्व और आत्मा शब्द का प्रयोग सिद्ध के लिये भी किया जा सकता है; क्योंकि उत्पादव्ययध्रौव्यरूप सत्त्व का सम्बन्ध सिद्ध में भी रहता है। आत्मशब्दार्थ निरन्तर अपर-अपर पर्याय का अनुगमन सिद्ध में भी प्राप्त होता है । आत्मशब्द की व्युत्पत्ति का निमित्त अपरापरपर्यायगमन ही होता है और उस का योग सिद्ध में भी रहता हैं । यह एवम्भूत की मान्यता है। एवम्भूतनय को भी निक्षेपचतुष्टय में भावनिक्षेप ही मान्य है; जिस का सार पूर्वग्रन्थ से बता दिया गया है । इस रीति से नैगमादि सातों नयों का लक्षण जानना चाहिए, जो इस लक्षणप्रकरण में कहे गए हैं। २५

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