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नयरहस्ये बलाबलविमर्शः
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कारणों में आनन्तर्य और पारम्पर्य की अपेक्षा से कारणत्व की व्यवस्था में वलवत्ता समान है और न्याय्य है ।
[क्रियानय और ज्ञाननय में अपनी अपनी विशेषता ] क्रियानय और ज्ञाननय की बात करे तो-क्रियानय कार्य के प्रति क्रिया को ही मुख्य कारण मानता है, ज्ञाननय ज्ञान को ही मुख्य कारण दिखाता है । इस में क्रियावादी की ओर से यदि यह कहा जाय कि-"क्रियानय के वक्तव्य में एक ऐसी विशेषता है जिस से उस की बलवत्ता सिद्ध होगी। वह विशेषता इस प्रकार है - क्रियानय का विषय क्रिया है और ज्ञाननय का विषय ज्ञान है। कार्य की उत्पत्ति तभी होती है जब सभी कारण क्रियान्वित हो जाते हैं, निष्क्रिय किसी भी कारण से कोई कार्य नहीं होता। ज्ञान चाहे कितना भी हो किंतु क्रिया में व्यापृत हुए बिना कार्य नहीं होगा। अब यह देखिये कि जब क्रिया सम्पन्न हो जायेगी-क्रिया की उपस्थिति होगी तब अन्य जो ज्ञानादि कारणरूप से अभिमत हैं उन की उपस्थिति तो अवश्य होगी ही। अतः क्रियानय में अपने विषय का [क्रिया का समवधान होने पर अन्य ज्ञाननयादि के विषय का [ज्ञानादि का समवधान नियमतः होता है यह विशेषता है, जो ज्ञाननय में नहीं है क्योंकि ज्ञाननय का विषय (ज्ञान) उपस्थित हो तब क्रिया का होना अवश्यभावी नहीं है, अत: क्रियानय बलवान सिद्ध होगा"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जैसी क्रियानय में आपने विशेषता दिखायी है वैसे ज्ञाननय में भी विशेषता दिखायी जा सकती है । ज्ञाननय की विशेषता यह है कि- कार्योत्पत्ति के अव्यवहित पूर्वकाल में उपस्थित होनेवाला जो अन्तिम कारण (क्रियारूप) होता है उस (क्रियारूप) कारण को जन्म देनेवाला तो ज्ञान ही होता है क्योंकि घटोत्पत्ति के अनुकुल ज्ञान ही कुम्भकार को नहीं होगा तो वह घटोत्पादन की क्रिया कैसे करेगा ? अतः अन्तिम कारण रूप जो क्रिया है उस का जनक जो ज्ञान है वह केवल ज्ञाननय का ही विषय है क्रियानय का नहीं-इसप्रकार चरमकारणगत क्रिया जनक ज्ञान-विषयतारूप विशेषता ज्ञाननय में होने से वही बलवान् है। अगर कहा जाय कि-"ज्ञाननय की विशेषता केवल व्यवहार के लिये ही उपयुक्त है, अर्थात् 'ऐसी ऐसी क्रिया से ऐसा ऐसा कार्य उत्पन्न होता है' इत्यादि पठन-पाठन में ही वह उपयोगी हैं, जब कि क्रियानय की विशेषता तो कायौंपयिक यानी त्वरित फलसपादक है, अतः क्रियानय बलवान है"-तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि ज्ञाननय की विशेषता भी परम्परया फलस'पादन में ही उपयुक्त होती है । अतः दोनों में से किस को बलवान माना जाय इस विषय में इच्छा ही प्रयोजक है और इच्छा सभी की एकरूप नहीं होती है किन्तु भिन्न-भिन्न होती है, इसलिए क्रियानय की दृष्टि से जो विशेष होता है, उस का प्रयोजक भी इच्छामात्र है और ज्ञाननय की दृष्टि से जो विशेष होता है, उस का भी प्रयोजक इच्छामात्र है, अतः एक विशेष को मान्यता दी जावे और इतर विशेष को मान्यता न दी जाये, इस में कोई एकतर पक्ष का साधक प्रमाण नहीं है । निश्चयनयाभिमत कारणों में आनन्तर्य और व्यवहाराभिमत कारणों में पारम्पर्य होता है-इस प्रकार की विशेषता से एक को बलवान् और दूसरे को निर्बल समझना यह भी इच्छाधीन ही है जो पहले कहा गया है।