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उपा० यशोविजयरचिते न चेन्द्रियरूपप्राणानां क्षायोपशमिकत्वात् कथमेवम्भूतस्यौदयिकभाव-मात्रग्राहकत्वमित्याशंकनीयम्, प्राधान्येनायुष्कमो दयलक्षणस्यैव जीवनार्थस्य ग्रहणात्, उपहतेन्द्रियेऽप्यायुरुदयेनैव जीवननिश्चयात् । ननु यदि जीवं प्रत्यौदयिकभाव एव गृह्यत एवम्भूतेन, कथं तर्हि भावप्राणयोगाद्भवतामपि सिद्धस्य जीवत्व मलयगिरिप्रभतिभिरुक्तमिति चेत् ? भावपञ्चकग्रा हिनैगमाद्यमिप्रायेणेति गृहाण । अत एव प्रज्ञापनादौ जीवनपर्यायविशिष्टतया जीवस्य शाश्वतिकत्वमभिदधे । यदि पुनः प्रस्थकन्यायाद्विशुद्धतरनैगमभेदमाश्रित्य प्रागुक्तस्वग्रन्थगाथा व्याख्यायते परैः, तदा न किञ्चिदस्माकं दृष्यतीति किमल्पीयसि दृढतरक्षोदेन ॥
[ अप्राप्तकाल निग्रहस्थान की दिगम्बर को प्राप्ति ] (किञ्चे) ग्रन्थकार, दिगम्बर के मत में शून्यता की आपत्ति दिखाकर प्रकृत ग्रन्थ से अप्राप्तकालत्वरूप निग्रहस्थान की आपत्ति बताना चाहते हैं। कथा के क्रम से विपरीत क्रम द्वारा वस्तु के कथन को अप्राप्तकालनिग्रहस्थान माना गया है, इस को व्यत्यस्ताऽभिधान भी कहते हैं । प्रकृत में इस निग्रहस्थान की प्राप्ति इस ढंग से होती है कि नगमादिनयों की दृष्टि से इन्द्रियादि प्राणधारणरूप जीवधात्वर्थ से उपलक्षित आत्मा जीवपदार्थ माना गया है। तब प्राणधारणरूप जीवधात्वर्थप्रकारकज्ञान जिस रीति से होवे, उस रीति से ही एवम्भूतनय का विधान करना चाहिए । आशय यह है कि सिद्धावस्था से पूर्वदशा में क्या जीवपदार्थ है, इस का कथन कर के ही सिद्ध दशा में जीवपदार्थ का निरूपण करना चाहिए, यही पदार्थ निरूपण का क्रम है। वह क्रम तो दिगम्बरमत में रखा ही नहीं गया, वह तो इतना ही कर देता है कि भावप्राण धारण करनेवाला सिद्ध ही एवम्भृत की दृष्टि में जीव है । असिद्ध दशा की स्थिति का वर्णन किए बिना सिद्धदशा की स्थिति का वर्णन दिगम्बर करते हैं, इसलिए क्रम का विपर्यास हो जाता है । अतः अप्राप्तकालत्वरूप निग्रहस्थान का प्रसंग दिगम्बर को प्राप्त होता हैं। इसीलिए व्यवहारादि नयों से अभिमत प्राणधारणरूप औदयिकभाव का ग्राहकत्व एवम्भृतनय में है,
सा मानना उचित है। ऐसा मानने में "जीवति-प्राणान्धारयतीति जीवः" यह जीवपद की व्युत्पत्ति भी अनुकूल होती है, पूर्व के सूरिलोगों ने ऐसा कहा भी है, जिस का स्मरण दिगम्बरों को करना चाहिए, क्योंकि उन सरियों का कथन युक्तिसंगत है ।
[इन्द्रिय क्षायोपशमिक भाव होने से सिर्फ औदयिक भाव कैसे ? ] - (न चेन्द्रिय) यदि दिगम्बरों की ओर से यह आशंका उठायी जाय कि “इन्द्रियरूपप्राण तो क्षायोपशमिक भाव हैं, तब उस को ग्रहण करनेवाला एवम्भृतनय औदयिकभावमात्र ग्राहक है अर्थात् कर्भ के उदय से जनित प्राणों के धारण का ही ग्राहक है, ऐसा कहना कैसे संगत होगा?" तो इस का समाधान यह है कि एवम्भूतनय प्रधान रूप से जीवन शब्द का अर्थ आयुष्कर्मोदयरूप ही मानता है । अप्रधानरूप से क्षायोपशमिक प्राणों के धारण का निषेध नहीं है, इसलिए औदयिकमावभावरूप प्राण का