Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 207
________________ उपा. यशोविजयरचिते एवम्भूतस्य जीवं प्रत्यौद विकभावग्राहकत्वात् । न चास्य क्रियाया एव प्रवृत्तिनिमित्तत्वाद्धात्वर्थ एव भावनिक्षेपाश्रयणे शुद्धधर्मग्राहकत्वमप्यनाबाधमिति वाच्यम्, यादृशधात्वर्थमुपलक्षणीकृत्ये तरनयार्थप्रतिसन्धानं तादृशधात्वर्थप्रकारक जिज्ञासयैव प्रसङ्गसङ्गत्यैवम्भूताभिधानस्य साम्प्रदायिकत्वात् । अन्यथा तत्रापि निक्षेपान्तराश्रयणेऽनव १९० यह "दिगम्बर" का मत है। इस मत का निराकरण करने के लिए ग्रन्थकार लिखते हैं कि 'तच्चिन्त्यम्' । इस का आशय यह है कि दिगम्बर ने युक्तियों के द्वारा जो अपने मत का समर्थन अपने ग्रन्थों में किया है, उस पर विचार किए बिना आस्था कर लेना उचित नहीं होगा, इसलिए उस के मत पर चिन्तन करना चाहिए । चिन्तन करने पर यदि कोई दोष न निकले, तो उस में मान्यता देना ठीक होता है । दिगम्बर मत के चिन्तन करने पर उस के मत में बहुत से दोष दृष्टि में आते हैं, अतः उस पर आस्था बुद्धिमान पुरुषों को नहीं करनी चाहिये । [ दिगम्बर मत की समीक्षा ] [ एवम्भूतस्य ] पूर्व ग्रन्थ से दिगम्बर के मत को चिन्तनीय बताया है । उस का कारण यह है कि एवम्भूतनय जीव के प्रति औदयिकभाव का ग्राहक है । " जीवति प्राणान् धारयति" इस व्युत्पत्ति से औदयिक भावान्तर्गत प्राणधारणात्मक जीवनक्रिया जिस काल में रहती है उस काल में एवम्भूत के मत से जीव में जीवत्व का स्वीकार इष्ट है । आशय यह है कि जीवन क्रियारूप जीवधात्वर्थ भवस्थ जीव में ही उपपन्न होता है, इसलिए भवस्थजीव को ही जीवपदार्थ मानना युक्त हैं । सिद्धि दशा में जीवधात्वर्थ जीवनक्रिया घटती नहीं है, अतः 'एवम्भूत के अभिप्राय से सिद्ध ही जीव है-' ऐसा जो दिगम्बर लोग मानते हैं, वह संगत नहीं है । दिगम्बर आचार्य का कथन तब संगत होता, यदि एवम्भूतनय जीव के प्रति पारिणामिकभाव का भी ग्राहक होता । शुद्धचेतन्य औदयिक भाव नहीं है, अतः उस का ग्राहक एवम्भूतनय नहीं है, इस हेतु से भी सिद्ध में जीवत्व एवम्भूतनय के अभिप्राय से नहीं घटता है । अतः दिगम्बर का कथन नियुक्तिक है। [ भावप्राण के धारण से सिद्ध में जीवत्व की आशंका और समाधान ] दिगम्बर की ओर से यदि यह कहा जाय कि - " एवम्भूत नय के मत में जीवशब्द का प्रवृत्तिनिमित्त प्राणधारण क्रिया ही है । प्राणधारणरूप धात्वर्थ में यह विश्लेषण नहीं है कि प्राण पद से इन्द्रियादि प्राण की ही विवक्षा होती है और शुद्धचैतन्यरूप भावप्राण की विवक्षा नहीं होती है, क्योंकि “जीव प्राणधारणे" इस व्याकरणानुशासन से प्राणमात्र का धारण जीव धातु का अर्थ प्रतीत होता है । इस स्थिति में भावनिक्षेप का आश्रयण करने पर भावप्राण का भी धातु से बोध हो सकता है । भावप्राण तो शुद्धचैतन्यरूप ही है, उस का ग्राहक यदि एवम्भूत हो तो कोई बाधक नहीं दीखता है । प्राणधारणक्रियारूप प्रवृत्तिनिमित्त भी घट सकता है, तब एवम्भूत की दृष्टि से भावप्राण का ग्रहण मानकर सिद्ध में ही "जीव" पदार्थता का स्वीकार करना संगत ही है, अतः सिद्ध को ही " जीवपदार्थ " क्यों न माना जाय ?" - परन्तु यह कहना ठीक नहीं है । कारण, जिस प्रकार

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