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उपा. यशोविजयरचिते केचित्त [ दिगम्बराः -एवम्भूताभिप्रायेण सिद्ध एव जीवो भावप्राणधारणात् न तु संसारीति परिभाषन्ते ॥ तदाहुः [ द्रव्यसंग्रहे ]सिद्धों का बोध नहीं मानता है, क्योंकि व्युत्पत्तिनिमित्त प्राणधारणरूप अर्थ सिद्धों में नहीं रहता है। "मोजीवः" ऐसा प्रयोग करने पर एवम्भत नय, अजीव द्रव्य का अथवा सिद्धात्मा का ही बोध मानता है । यद्यपि “नो" शब्द को सर्वनिषेधक मानकर 'नोजीवः इस वाक्य से अजीवद्रव्यों का बोध नेगमादि नय भी मानते हैं, इसलिए नैगमादिनय और एवम्भतनय इन दोनों की मान्यता में साम्य प्रतीत होता है, तथापि “नो” शब्द के देश निषेधार्थ कपक्ष में नगमादिनय जीव के देशप्रदेश का ही बोध मानते हैं, परन्तु एवम्भतनय एसा बोध नहीं मानता है, यह वषम्य 'नोजीवः' शब्दजन्य बोध में रहता है। यहाँ यह ख्याल रखना चाहिए कि एवम्भतनय सम्पूर्णग्राही है, इसलिए जीव के देश और प्रदेश को वह नहीं मानता है । "अजीवः” ऐसे शब्दप्रयोग से एवम्भूत नय अजीव द्रव्य का ही बोध मानता है । यद्यपि नैगमादिनय भी “जीव" शब्द के पूर्ववर्ती नकार के सर्वप्रतिषेध अर्थ को मानकर और पर्यंदास का आश्रयण करके जीव भिन्न पुद्गलादि द्रव्य मानते हैं, फिर भी “जीव" शब्द के पूर्ववर्तनकार को देशनिषेधार्थक माना जाय तो नैगमादि छः नयों के मत से जीव के देशप्रदेश का भी बोध होगा, एवम्भूत के मत में देशप्रदेश मान्य न होने से अजीव द्रव्य मात्र का बोध होता है, यह अर्थ "अजीवद्रव्यमेव" यहाँ स्थित एवकार से प्राप्त होता है । "नोऽजीवः" ऐसा प्रयोग करने पर एवम्भूत के मत में भवस्थ अर्थात् नर, अमर तिर्यञ्च, नरक गतियों में वर्तमान जो जीव, उसी का बोध माना जाता है । नैगमादि नयों की तरह “नोऽजीवः” इस वाक्य में स्थित "नो" शब्द और “जीव" शब्द के पूर्ववर्ती "नञ्' शब्द का देशप्रतिषेध अर्थ मानकर अजीवद्रव्य के देश और प्रदेश का बोध नहीं मानता है, क्योंकि सम्पूर्णग्राही एवम्भत के मत से देशप्रदेश का स्वीकार नहीं है । “भवस्थमेव" इस वाक्य में स्थित एवकार से सिद्धां की व्यावृत्ति सूचित होती है, क्योंकि एवम्भत नय सिद्धगति में रहनेवाले आत्मा को जीव नहीं मानता है यह श्वेताम्बर जैनो की प्रक्रिया है ।
[ दिगम्बरों के मत में सिद्धात्मा ही जीव है ] "केचित्त" इत्यादि :- ग्रन्थकार अब दिगम्बर के मत का निरसन करने के लिए पहले दिगम्बरों की मान्यता को प्रदर्शित करते हैं-एवम्भतनय सिद्धि गति में स्थित जीव को जीव नहीं मानता है, यह श्वेताम्बरों का दृष्टिकोण है-इस से ठीक विपरीत दृष्टिकोण दिगम्बरों का है, वे लोग सिद्ध को ही जीव मानते हैं । भावप्राणरूपजीव पदार्थ का आश्रय सिद्धात्मा ही होते हैं, इसलिए वही जीव पदार्थ है । संसारीजीव श्वासप्रश्वासआदिरूप प्राण को धारण करने पर भी भावप्राण का आश्रय न होने से संसारीजीव जीवपद का अर्थ नहीं है । ऐसी परिभाषा दिगम्बरों की है। दिगम्बर लोग अपने मत को नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित द्रव्यसंग्रह के वचन से समर्थन करते हैं, कि जो तीनों काल में इन्द्रिय, बल आयु और श्वासोच्छ्वास को धारण करता है, व्यवहारनय से वही जीव है । निश्चयनय से तो जिस को चेतनायुगल