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नयरहस्ये जीवतत्त्वविमर्शः
" तिक्काले चदुपाणा इन्दियवल माउआणपाणो अ ।
ववहारा सो जीवो णिच्छयदो दुचेयणा जस्स || ३ || इति | न च द्विचेतनाशाली संसार्यपि जीव एवेति वाच्यम्, शुद्धचैतन्यरूपनिश्चयप्राणस्य सिद्धेनैव धरणात् । न च संसारिचैतन्यमपि निश्चयतः शुद्धमेवोपरागस्य तेन प्रतिक्षेपात् ; तदुक्तम् [द्रव्यसंग्रहे ] " मग्गणगुणठाणेहि अ चउदस य हव ति तह असुद्ध - या | विष्णेया संसारी सव्वे सुद्धा उ ( हु ) सुद्धणया ||१३||" इति वाच्यम्, एकीकृतनिश्चयेन तथाग्रहणेऽपि पृथक्कृतनिश्चयभेदेन तदग्रहणादिति । तच्चिन्त्यम्,
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यानी ज्ञान-दर्शनरूप भावप्राण रहते हैं, वही जीवपदार्थ है । इस से यह सिद्ध होता है कि भावप्राण का आश्रय ही जीव पदार्थ है और वह सिद्ध ही है । इस गाथा में इन्द्रिय पद से "त्वक, रसना, नासिका, श्रवण, चक्षु" ये पांच बाह्येन्द्रिय और मनरूप अन्तरिन्द्रियविवक्षित है । बलपद से कायिक, वाचिक और मानसिक ये तीन बल विवक्षित हैं । आयुपद से किसी एक शरीर में जीव का कर्मानुसार नियतकाल तक अवस्थान विवक्षित है और आनप्राण पद से श्वास-प्रश्वासरूप प्राण विवक्षित हैं। ये सब संसारी जीव में ही होते हैं । इसलिए व्यवहारनय से सौंसारी भले ही जीवपदार्थ हो, निश्चयनय से तो सिद्ध ही जीव पदार्थ है ।
यदि यह शंका हो कि - 'स'सारी जीव इन्द्रिय, बल आदि चार प्राणों का और भावप्राण जो ज्ञान - दर्शन रूप है, उस को भी धारण करता है, तब सौंसारी भी जीव क्यों न माना जाय ?' तो इस का समाधान वे लोग इस तरह करते हैं कि शुद्धचैतन्यरूप नैश्चयिक प्राण को सिद्ध ही धारण करते हैं, इसलिए सिद्ध ही जीवपदार्थ हो सकते हैं, ससारी नहीं । यदि यह कहा जाय कि - "स सारी आत्मा में जो चैतन्य रहता है वह भी निश्चय से शुद्ध ही है, तो संसारी आत्मा जीवपदार्थ क्यों नहीं हो सकेगा ? इस प्रश्न के सामने यह नहीं कह सकते कि 'आवरणीयकर्म का जीव के साथ जो सम्बन्ध माना गया है तदात्मक उपराग के रहने पर ससारी आत्मा का चैतन्य शुद्ध नहीं है- ' क्योंकि निश्चयनय उपराग को मानता ही नहीं है । द्रव्यसंग्रहकार के “मग्गणगुणट्ठाणेहि" इत्यादि गाथा में भी यही कहा गया है कि- १४गति- इन्द्रियादि मार्गणास्थान और मिथ्यात्वादि १४ गुणस्थान की अपेक्षा से सब जीव संसारी हैं- ऐसा अशुद्धनय का अभिप्राय है । शुद्धनय के अभिप्राय से सर्व जीव शुद्ध ज्ञानस्वरूप यानी शुद्धात्मस्वरूप हैं।"तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि चैतन्य चैतन्यरूप से सभी एक ही है - इसतरह के संग्रहनिश्चयनय से संसारी चतन्य का शुद्धरूपतया ज्ञान होने पर भी तत्-तद् आत्मा के भेद से सभा आत्मा का चैतन्य भिन्न-भिन्न ही होता है, इस तरह के चैतन्यगत भेदग्राही एवम्भूत निश्चयनय से ससारी चैतन्य में शुद्धता का ज्ञान नहीं है । अतः संसारी चैतन्य एवम्भूतनय के मत से जीवपदार्थ नहीं हो सकता है, किन्तु भावप्राण को धारण करनेवाला सिद्ध ही एवम्भूतनय के मत से जीवपदार्थ है ।