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नयरहस्ये जीवादिशब्दार्थः
१८७ षेधार्थत्वात्पर्युदासाश्रयणाच्च जीवादन्यत् पुद्गलद्रव्यादिकमेव । 'नोऽजीव' इति सर्वप्रतिषेधाश्रयणे जीवद्रव्यमेव, देशप्रतिषेधाश्रयणे चाजीवस्यैव देशप्रदेशौ । एवम्भूतस्तु जीवं प्रत्यौद यिकभावग्राहकः, तन्मते क्रियाविशिष्टस्यैव पदार्थत्वादित्ययं 'जीव' इत्याकारिते भवस्थमेव जीवं गृह्णाति, न तु सिद्धम् , तत्र जीवनार्थानुपपत्तः । 'नोजीव' इति चाजीवद्रव्यं सिद्धं वा । 'अजीव' इति चाजीवद्रव्यमेव । 'नोऽजीव' इति च भवस्थमेव । जीवे देशप्रदेशौ तु सम्पूर्णग्राहिणानेन न स्वीक्रियेते, इत्यस्माकं प्रक्रिया ॥ निषेध नहीं किन्तु देशनिषेध अर्थ लिया जाय तो किसी एक जीवदेश का निषेध होने पर भी अन्य देश का निषेध नहीं होता है । इस स्थिति में "नोजीवः” इस प्रयोग से ये छ नय उक्त जीव के देश और प्रदेश का ही बोध मानते हैं।
एवं 'अजीवः' इस प्रयोग में “जीव” शब्द के पूर्ववर्ती “नकार" जीव और जीव के देश और प्रदेश इन सभी का निषेधक है, अतः "न" का पर्युदास अर्थ लेने पर जीव से भिन्न पुदगल द्रव्य आदि का ही बोध ये छ नय मानते हैं क्योंकि पर्युदास सदृशवस्तु का ग्राही होता है, अतः जीव से भिन्न और द्रव्यत्वरूपेण जीव के सदृश पुदगलादि द्रव्य ही अजीवपद के प्रयोग से बोधित होते हैं ।
तथा "नोअजीवः” ऐसा प्रयोग करने पर "नो' शब्द और जीव शब्द के पूर्ववर्ती "न" शब्द इन दोनों को सर्वप्रतिषेधार्थक माना जाय इस पक्ष में “जीव" शब्द के साथ लगा हुआ "न" शब्द, जीव तथा जीव के देशप्रदेश इन सभी का निषेध करेगा, अतः "अजीव" शब्द से "जीवभिन्न" एसा अर्थ निकलेगा । जीव भिन्न सभी वस्तुओं का निषेध नो" शब्द से हो जाएगा, तब जीवभिन्न सभी वस्तओं से भिन्न जीव ही ठहरेगा, क्योंकि दो निषेधार्थ शब्दों का प्रयोग जहाँ होता है वहाँ प्रस्तुत अर्थ का ही दृढ प्रतिपादन सिद्ध होता है। इस स्थिति में ये छ नय "नोऽजीवः" शब्द से जीवद्रव्यमात्र का ही बोध मानते हैं। यदि 'नोऽजीवः' इस प्रयोग में "अजीव" शब्द का "जीवभिन्न द्रव्य" ऐसा अर्थ और "नो" शब्द से जीवभिन्न द्रव्य के देश का ही प्रतिषेध माना जाय, तो इस पक्ष में “अजीव द्रव्य' का किञ्चित देश "नो" शब्द से निषिद्ध होगा तो भी इतर देश और प्रदेश तो निषिद्ध नहीं होगा, क्योंकि इस पक्ष में "नो" शब्द सर्वनिषेधक नहीं है- इस स्थिति में "नोऽजीवः” इस शब्द से ये छ नय अजीव द्रव्य के देश और प्रदेश का बोध माने गे।
इसतरह नगमादि छ नयों के अभिप्राय में तुल्यत्व का प्रतिपादन करके उन नयों की अपेक्षा से “एवम्भूतनय" की विलक्षणता बताने के लिए कहते हैं-"एवम्भूतस्तु' इत्यादि "एवम्भूतनय" जीव शब्दार्थ के विचार में औपशमिक आदि पूर्वोक्त पाँचों भावों का ग्राहक नहीं, किन्तु औदयिक भावमात्र का ग्राहक है । कारण, एवम्भत के मत में व्युत्पत्तिनिमित्त क्रिया के आश्रयभूत अर्थ को ही पदार्थ माना जाता है । अतः "जीवः” ऐसा प्रयोग करने पर यह नय जो भवस्थ जीव हैं अर्थात् नर, अमर, तिर्यञ्च, नारक इन चार गतियों में जो जीव रहे हैं, उन्हीं का बोध होने का मानता है, सिद्धिगति में रहनेवाले