Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 202
________________ नयरहस्ये एवम्भूतनयः १८५ नन्वेवं प्राणधारणाभावात् सिद्धोऽपि न जीवः स्यादिति चेत् ? एतन्नये न स्यादेव । तदाह भा-यकार:- *एवं जीवं जीवो संसारी पाणधारणाणुभवा । सिद्धोपुण अजीयो, जीवणपरिणामरहिओ त्ति ।।२२५६॥ अर्थ निकलता है । घट् धातु "चेष्टा" अर्थ में व्याकरणानुशासन से जाना जाता है, इसलिए 'घट' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ चेष्टा यानी जलादिआनयनरूप अर्थ होता है, उस का अन्वय जिस घटरूप द्रव्य में होता हो वह भी जिस काल में और जिस देश में होता हो, वही घटादिरूप अर्थ व्युत्पत्त्यर्थान्वयनियत अर्थ बनेगा, तथाविध अर्थबोधकता ही घटपद में रहेगी, क्योंकि चंष्टायुक्त घटात्मक अर्थ से वह पद उसी अर्थ में नियमित होता है। समभिरूढनय इसतरह के ही अर्थ की बोधकता को घटपद में नहीं मानता है । वह तो जिस काल में घटरूप अर्थ में चेष्टारूप व्यत्पत्त्यर्थ नहीं होता है और जिस देश में चेष्टा युक्त नहीं होता है, तद्देश और तत्कालस्थित वर्तमान घट को भी घट मानता है, इसलिए व्युत्पत्त्यर्थान्धयनियत अर्थबोधकता पदो में वह नहीं मानता है, अतः समभिरूढ में अतिव्याप्ति को अवकाश नहीं है । देशकृत और कालकृत नियम का प्रवेश ग्रन्थकारकृत प्रथम लक्षण में नहीं है, इसलिए समभिरूढ में अतिव्याप्ति की शंका को अवकाश था उस का वारण करने लिए "नियमघटित" यह परिष्कृत लक्षण ग्रन्थकार ने किया है । एवम्भूत का यह सिद्धान्त है कि कुटपद का अर्थ जो कौटिल्य का आश्रय घट होता है, वह घटपद का अर्थ नहीं होता है क्योंकि घटपद का व्युत्पत्त्यर्थ जो जलाहरणादि क्रिया है वह उस में नहीं है, तो उसी रीति से गृह के एक देश में स्थित घट जिस में जलाहरणादि क्रिया नहीं रहती है, उसकाल में उस घट में भी घटपद के व्यत्पत्त्यर्थ जलाह किया का तो अभाव ही रहता है, इसलिए वैसा घर भी घटपदार्थ नहीं है क्योंकि कुटपदार्थ और गृहकोण स्थित घट, इन दोनों में घटपद का व्युत्पत्त्यर्थ जलाहरणादि क्रिया का अभाव समानरूप से रहता है । अतः स्त्री के मस्तक पर स्थित जलपूर्ण घट ही एवम्भूत के मत से घटपदार्थ है। [ सिद्धात्मा में जीवन का अस्वीकार ] (नन्वेवं यहाँ यह आशंका उठ सकती है कि-"गृहकोणस्थ घट में घटपद का व्युत्पत्ति-अर्थ जो जलाहरणादि क्रियारूप है, उस का अभाव रहने से यदि एवम्भूतनय गृहकोणस्थ घट को घर पदार्थ नहीं मानेगा, तो सिद्ध जीव भी जीव-पदार्थ नहीं हो सकेगा क्योंकि सिद्धजीव में भी प्राणधारणरूप जीवपद का व्युत्पत्त्यर्थ नहीं रहता है। पाँच इन्द्रिय स्पर्शनादि और कायिक, वाचिक, मानसिक ये तीन प्रकार के बल, श्वासोच्छ्वास-और आयुष ये दस प्रकार के प्राण माने गए है । सिद्धों में ये प्राण नहीं होते हैं, इसलिए प्राणधारण क्रिया का भी अभाव सिद्धों में रहता है।"-इस शंका का समाधान यह है कि एवम्भृतनय के मत से सिद्धात्मा में जीवपद का अर्थ नहीं घटता है तो कोई क्षति नहीं है। सिद्ध जीव में जीवपदार्थत्व का न होना इस नय को इष्ट ही है। * एवं जीवन् जीवः संसारी प्राणधारणानुभवात् । सिद्धः पुनरजीवो जीवनपरिणामरहितः । २४

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