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नयरहस्ये जीवतत्त्वविमर्शः
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स्थानात् प्रकृतमात्राऽपर्यवसानादन्ततो ज्ञानाऽद्वैते शून्यतायां वा पर्यवसानात् । किंचेतादृगुपरितनैवम्भूतस्य प्राक्तनैवम्भूताभिधानपूर्वमेवाभिधानं युक्तम्, अन्यथाऽप्राप्तकालत्वप्रसङ्गात् । तस्माद्वयवहाराद्यभिमतव्युत्पत्त्यनुरोधेनौद यिकभावग्राहकत्वमेवास्य सूरिभिरुक्तम्, युक्तञ्चैतदिति स्मर्तव्यम् ।
के धात्वर्थ को मानकर जीव पदार्थ का ज्ञान "नैगमादिनयों" के अभिप्राय से होता है, उसी प्रकार के जीवधात्वर्थ का स्वीकार कर जीवपदार्थ का ज्ञान एवम्भूत के अभिप्राय से कैसा होता है ? यही जिज्ञासा यहाँ प्रस्तुत है । औइयिकभावरूप जीवन को जीव धातु का अर्थ मानकर नैगमादिनय से नर- अमर आदि पांचों गतियों में जीवपदार्थ कैसा होना चाहिये इस बात की चर्चा का यह प्रसंग चलता है । इस प्रसङ्ग में एवम्भूत को कैसा जीव पदार्थ मान्य है, इस की जिज्ञासा होना सहज है और उस की उपेक्षा भी नहीं हो सकती है, इसलिए उस की मान्यता का स्पष्टीकरण आवश्यक ही रहता है । उस के विना श्रोता की जिज्ञासा शान्त भी नहीं हो सकती है । इस स्थिति में जैसा जीवधात्वर्थ मानकर जीवपदार्थ का प्रतिपादन नैगमादिनयों के मत में किया गया है उसी जीवधार्थ को लेकर जीवपदार्थ का निरूपण एवम्भूत को भी करना चाहिए, यही सम्प्रदाय यानी परम्परा मान्य है । ऐसा करने से ही प्रसङ्गसंगति भी होती है । औदfreerana " जीव" धात्वर्थ मानकर जीवपदार्थ का प्रतिपादन नैगमादि नयों के मत से हुआ है, अतः औदयिकभाव स्वरूप धात्वर्थ को मानकर ही तदुपलक्षित आत्मा को लेकर जीवपदार्थ का प्रतिपादन एवम्भूतनय करे, यही उचित है । भावप्राणरूप जीव धात्वर्थ को मानकर जीवपदार्थ का प्रतिपादन नैगमादिनयों ने नहीं किया है, इस स्थिति में भावप्राणरूप जीवधात्वर्थ मानकर जीवपदार्थ का प्रतिपादन यदि एवम्भूत करे तो अत्यन्त अप्रासंगिक हो जायगा, इसलिए एवम्भूत के अभिप्राय से "सिद्धात्मा ही जीव है" ऐसा दिगम्बरों का मानना युक्त नहीं है ।
यदि इस तथ्य को न मानकर और भावनिक्षेप का अवलम्बन करके शुद्धचैतन्यरूप भावप्राण पक्ष की विवक्षा का आग्रह करने पर, ऊपर ऊपर के एवम्भूत नयों से अन्यअन्य भावनिक्षेप का भी आश्रयण किया जा सकेगा और वैसा करने पर दिगम्बर के मत में अनवस्था दोष उपस्थित होगा, जिस से दिगम्बरों को मान्य शुद्धचैतन्यरूप प्रकृत अर्थमात्र में कभी भी पर्यवसान नहीं होगा । अनवस्था दूर करने के लिये अगर सिर्फ ज्ञानमात्र को ही भावप्राण मानेंगे तो अन्ततो गत्वा ज्ञानाद्वैत में पर्यवसान होगा, अथवा उस में भी भावनिक्षेपान्तर का आश्रय करने से ज्ञान का भी क्रमशः सूक्ष्म-सूक्ष्मविभाग होने पर अन्त में शून्यता में ही पर्यवसान हो जायगा, जो दिगम्बर को भी इष्ट नहीं है | अतः साम्प्रदायिक रीति का ही आश्रय करना चाहिए । साम्प्रदायिक रीति का आश्रयण करने पर तो सिद्ध में जीवत्व सिद्ध नहीं होता है, अतः दिगम्बर का कथन संगत नहीं है ।