Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 203
________________ १८६ उपा. यशोविजयरचिते अत एव "जीवो नोजीवोऽजीवो नोज्जीव" इत्याकारिते नैगम-देशसंग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र-साम्प्रत-समभिरूढा जीवं प्रत्यौपशमिकादिभावपञ्चकग्राहिणः । 'तन्मते व्युत्पत्तिनिमित्तजीवनलक्षणौदारिकभावोपलक्षितात्मत्वरूपपरिणामभाव विशिष्टस्य जीवस्य भावपञ्चकात्मनः पदार्थत्वादित्यमी पञ्चस्वपि गतिषु 'जीव' इति जीवद्रव्य प्रतियन्ति । 'नोजीव' इति च नोशब्दस्य सर्वनिषेधार्थपक्षेऽजीवद्रव्यमेव, देशनिषेधाथपक्षे च देशस्याऽप्रतिषेधाज्जीवस्यैव देशप्रदेशौ । 'अजीव' इति नकारस्य सर्वप्रतिइस अर्थ में भाष्यकार का-एव जीवो० इत्यादि वचन भी संवादक है । उस का अर्थ यह है कि जीव धातु प्राणधारणरूप अर्थ का वाचक है, ऐसा व्याकरणानुशासन से जाना जाता है । “जीवति-दशविधप्राणान् धारयति" इस व्युत्पत्ति के अनुसार दशप्रकार के प्राणों को धारण करता हुआ ही जीवपदार्थ एवम्भूतनय के मत से माना जाता है । जो दशविध प्राणों को धारण करता है, वह प्राणधारण का अनुभव भी करता है, इसलिए प्राणधारण का अनुभव जिस में होता हो वही जीवपद का अर्थ है । वह जीव संसारी ही होता है और वही देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, नारक आदि शब्द से कहा जाता है। सिद्धात्मा तो इस के मत से जीव नहीं है क्योंकि वह जीवन (प्राणधारण) से रहित है, इसलिए सिद्ध में जीव शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ नहीं घटता है, किन्तु सत्ता का योग होने से सत्त्वशब्द से व्यवहृत होता है । एवं, "आत्मा" शब्द से भी सिद्ध का व्यवहार होता है क्योंकि “अतति तान् तान् दर्शन-ज्ञान-सुखादिपर्यायान् गच्छति इति आत्मा" इस व्युत्पत्ति के अनुसार आत्माशब्द का 'ज्ञान, दर्शन, सुखादि पर्यायों को प्राप्त करनेवाला' यह अर्थ निकलता है । यह अर्थ सिद्धों में भी घटता है क्योंकि सिद्ध दशविध प्राणों को धारण नहीं करते हैं, तो भी ज्ञान, दर्शन, सुखादि पर्यायों को प्राप्त करते रहते हैं। अतः एवम्भूतनय की दृष्टि में सिद्ध जीवपदार्थ नहीं है। [जीव-नोजीव, अजीव-नोऽजीव के सम्बन्ध में सप्तनयाभिप्राय ] [अत एव प्राणधोरण लक्षण जीवनक्रिया काल में ही जीव में जीवत्व का अभ्युपगम एवम्भूतनय करता है इसीलिये शास्त्र में यह विभाग दिखाया है-एवंभूत को छोडकर शेष नैगम, देशसंग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, साम्प्रत और समभिरूढ ये छः नय जीव के प्रति औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक इन भावपञ्चक के ग्राही कहे गये हैं । इन के मत में 'जीवति इति जीवः' इस व्युत्पत्ति से प्राणधारण स्वरूप जीवन क्रिया जो कि कर्मोदयकृत है उससे उपलक्षित जीव का आत्मत्वरूप पारिणामिक भाव, उस से युक्त और उपरोक्त भावपञ्चकात्मक जो जीव वही जीवपदार्थ इन नयों के मत में है। अतः ये नय नर, अमर, तिर्यञ्च, नारक, सिद्ध, इन पांचो गतियों में "जीव" ऐसा कहने पर जीव द्रव्य की प्रतीति का होना मानते हैं। तथा 'नोजीवः' ऐसा कहने पर, 'नो' शब्द का सर्वनिषेध अर्थ लिया जाय तब जीव और जीव के देश-प्रदेशों का भी निषेध हो जाता है इसलिए "नोजीव" शब्द से अजीवद्रव्य का ही बोध ये छ नय मानते हैं। "नोजीव" इस में "नो" शब्द का सर्व

Loading...

Page Navigation
1 ... 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254