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उपा. यशोविजयरचिते उपसंग्रहात् । न च “नामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिआ वा होज्जा आवकहिया वा होज्ज"त्ति (अनु० ११) सूत्रे एवानयोविशेषाभिधानात्कथमैकरूप्यमित्याशंकनीयम, पाचकयाचकादिनाम्नामप्ययावत्कथिकत्वात्तदव्यापकत्वात् स्थूलभेदमात्रकथनम् । 'पदप्रतिकृतिभ्यां नामस्थापनयोर्भेद' इति चेत् ? कथं हि गोपालदारके नामेन्द्रत्वम् ? __ अथ नामेन्द्रत्वं द्विविधं 'इन्द्र'इतिपदत्वमेकम् , अपरं चेन्द्रपदसंकेतविषयत्वम् , आद्यं नाम्नि, द्वितीयं च पदार्थ इति न दोष इति चेत् ? तर्हि व्यक्त्याकृतिजातीनां पदार्थत्वेनेन्द्रस्थापनाया अपीन्द्रपदसंकेतविषयत्वात् कथं न गोपालदारकवन्नामेन्द्रत्वम् ! 'नामभावनिक्षेपसांकर्यपरिहाराय इन्द्रपदसंकेतविशेषविषयत्वं नामेन्द्रत्वं निरुच्यते' इति चेत् ? हन्त ! तर्हि सोऽयं विशेषो नामस्थापनासाधारण एव संगृह्यतामिति ।
कितने आचार्यों का कहना है कि यह संग्रहनय स्थापना निक्षेप को नहीं मानता है। क्योंकि इस को संग्रह करने की विशेष अभिरुचि रहती है, अत एव स्थापना का भी नामनिक्षेप में ही संग्रह कर लेता है।
यहाँ शङ्का उठ सकती है कि-"नाभं आवकहियं, ठवणा इत्तरिआ वा होज्जा आवकहिया वा होज्ज ति" [अनु० सू० ११] [नाम यावत्कथिकं, स्थापना इत्वरिका वा भवेत्, यावत्कथिका वा भवेत् इस सूत्र में, नाम यावद्वस्तुभावी होता है, स्थापना अल्पकालीन
और यावद्वस्तुभावी दोनों प्रकार की होती है । इस प्रकार नाम और स्थापना इन दोनों निक्षेपों में भेद होने का कथन है, तब स्थापना की नामनिक्षेप के साथ एकरूपता कैसे होगी ? भावार्थ यह है कि नाम यावत्कथिक यानी वस्तुसत्ता की कथा रहे तब तक रहने वाला माना जाता है । स्वाश्रय द्रव्य की सत्ता के समय में नाम की निवृत्ति नहीं होती। जैसे मेरु, जम्बूद्वीप, कलिंग, मगध आदि द्रव्यों की सत्ता जब तक है, तब तक मेरु आदि नाम भी विद्यमान रहते हैं । उन की निवृत्ति नहीं होती । इसलिए मेरु आदि नाम यावत्कथिक हैं अर्थात याववस्तुस्थायि हैं । इन्द्रादि की प्रतिकृतिरूप स्थापना जो काष्ठ मृत्तिका वगैरह से निर्मित हो अथवा चित्ररूप हो, वह उस में स्थापनीय इन्द्रादि के रहने पर भी नष्ट हो जाती है। इसीलिए वह स्थापना इत्वरिका है अर्थात् विनाशगमन शील है, इसलिए अल्पकालिक है । कोई नट प्रयोजनवशात् इन्द्र बनता है और कुछ काल के बाद अन्य राजा आदि का रूप धारण करता है, वह भी इन्द्र और राजा की स्थापना ही है, परन्तु इन्द्रादिरूप स्थापना आश्रय द्रव्य के रहने पर भी नष्ट हो जाती है। इसीलिए वह स्थापना भी इत्वरिका है। शाश्वत प्रतिमादिरूप स्थापना यावत्कथिका कही जाती है क्योंकि अर्हत आदि रूप से वह सर्वदा रहती है । इसलिए नाम और स्थापना इन दोनों निक्षेपों में एक तो यावत्कथिकमात्र है और दूसरा अल्पकालस्थायि और यावत्कथिक दोनों है । यह भेद स्पष्ट होने पर भी स्थापना निक्षेप का नाम निक्षेप से ही संग्रह करना कैसे उचित होगा ?"