________________
१५०
उपा. यशोविजयरचिते तत्रापि (नामादिषु) प्रसिद्धपूर्वाच्छब्दादर्थप्रत्ययः साम्प्रत इति साम्प्रतलक्षणम् । प्रतिविशिष्टवर्तमानपर्यायापन्नेषु नामादिष्वपि गृहीतसङ्केतस्य शब्दस्य भावमात्रहै, अतीतानागत परकीय को नहीं मानता, इसलिए वर्तमान आत्मीय भावघट ही इस की दृष्टि में यथार्थ है, तद्वाचक शब्द यथार्थ अभिधान है, तद्विषयक अध्यवसाय ही “शब्दनय” पद से कहा जाता है । इस लिए यथार्थाभिधान विषयक अध्यवसाय यही शब्दनय का लक्षण फलित हुआ । सूत्र में जो 'शब्द' पद है, उस से "शब्दनय” रूप लक्ष्य का निर्देश किया गया है । “आकरग्रन्थों" में शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत ये जो तान भेद शब्दनय के बताये गए हैं, उन तीनों का यह एक ही लक्षण है। ग्रन्थकार ने "एक" पद का प्रयोग किया है, उस का अभिप्राय यह है कि एक हा लक्षण के लक्ष्य साम्प्रत, समभिरूढ और एवम्भूत-ये तीनों भेद है, अतः इन तीनों भेदों का अन्तर्भाव शब्दनय में हो जाता है । इसी दृष्टि से आदेशान्तर में नयों की संख्या पाँच ही होती है। यहाँ यह शङ्का उठती है-“यथार्थाभिधान तो नैगमादि नयों में भी होता ही है, अतः उक्त लक्षण की अतिव्याप्ति नैगमादि नयों में प्रसक्त होती है, तब तो "शब्दनय" का यह लक्षण निर्दोष कैसे माना जाय ?'-इस का समाधान करने के लिए ग्रन्थकार भाष्योक्त लक्षण का अर्थ प्रदर्शित करते हैं कि भाषमात्र के अभिधान का प्रयोजक जो अध्यवसाय विशेष वही "शब्दनय" का लक्षण है । भाष्योक्त लक्षण वाक्य का आशय इसी लक्षण में है। अब नैगमादि नयों में अतिप्रसंगरूप दोष नहीं आता है क्योंकि नैगमादिनय नाम, स्थापना, द्रव्य के अभिधान का प्रयोजक अध्यवसायविशेषरूप भी हैं, इसलिए शब्दनय का यह लक्षण उन नयों में नहीं जाता है । ग्रन्थकार ने इस निस्कृष्ट लक्षण में "भाव" शब्द के बाद जो "मात्र" पद का प्रयोग किया है, उस का अभिप्राय नैगमादि नयों में जो भाष्योक्तलक्षण की आपाततः अतिव्याप्ति आती है, उस के निवारण में ही है । "साम्प्रतादि" भेदों में अव्याप्ति भी नहीं होती है, क्योंकि साम्प्रतादि भी भावमात्र का ही अवबोधन करते हैं ऐसा सूचन ग्रन्थ में "अतिप्रसंग" पद के बाद “आदि" पद के उपादान से किया है।
[ साम्प्रतनय का लक्षण परिचय ] (तत्रापी) शब्दनय के तीन अवान्तरभेद शास्त्र में बताए गये हैं। साम्प्रत, समभिरूढ और एवम्भूत, उन में से प्रथम भेद का लक्षण प्रकृतग्रन्थ से बताते हैं । यह लक्षण तत्त्वार्थसूत्र (१-३५) के भाष्य में कथित है, उसी का उद्धरण यहाँ पर किया गया है । लक्षणघटक "नामादि" पद से “नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव" इन चारों का ग्रहण किया गया है। प्रतिविशिष्टपर्यायरूप जो नाम, स्थापना द्रव्य और भावरूप घटादिवस्तु, उस में सझासज्ञि सम्बन्ध-ग्रहण काल में अभिधानरूप से-अर्थात् घट शब्द नामघट का वाचक है, स्थापनाघट का वाचक है, द्रव्यवट का वाचक है, भाववट का वाचक है-इस रूप से जिस की प्रसिद्धि पूर्व मयों में हो चुकी है, ऐसे शब्द अर्थात् नाम से होने वाला जो अर्थप्रत्यय अर्थात् विज्ञान या अध्यवसाय घही साम्प्रतनय का लक्षण है। भावमात्र ही शब्द का पाच्य उसे अभीष्ट है क्योंकि भाघ से ही सभी अभिलषित कार्य की सिद्धि होती है।