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नयरहस्ये साम्प्रतनयः
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अथवा लिंगवचनसंख्या दिभेदेनार्थभेदाभ्युपगमा जुसूत्रादस्य विशेषः । अयं खल्वेतस्याशयः-यदि ऋजुसूत्रेण
शब्दः-वाचकशब्द के अभेद से भी वस्तुगत धमों का अभेद सिद्ध होता है । जैसे -अस्तित्व धर्मात्मक वस्तु का वाचक जो "अस्ति' शब्द होता है वही अस्ति शब्द अन्य अनन्त धर्मात्मक वस्तु का भी वाचक होता है, इसलिए अस्तिरूपवाचक शब्द के अभेद से वस्तुगत अनन्त धर्मों में अभेद सिद्ध होता है।
पर्यायार्थिकनय की गौणता और द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता की विवक्षा होती है, तब उन वस्तुगत धर्मो में कालादि की अपेक्षा से अभेद भासित होता है। जब "द्रव्यार्थिकनय" में गौणता और "पर्यायार्थिकनय" में प्रधानता की विवक्षा होती है, तब तो धर्मो में भेद ही भासित होता है । तब एक शब्द से अनेक धर्मों का प्रतिपादन नहीं हो सकता है, इसलिए क्रम से ही प्रतिपादन होता है, उसी का “विकलादेश" शब्द से व्यवहार किया जाता है। विकलादेश नयात्मक होता है, उस में भेद की प्रधानता रहती है, अथवा भेद का उपचार रहता है।
यहाँ शंका उठे कि-"साम्प्रतनय" यदि सप्तभङ्गी का स्वीकार करे, तो उस में भी प्रमाणत्व का प्रस'ग होगा तब "साम्प्रतनय" में "स्याद्वादिता' का प्रसंग आयेगा क्योंकि उक्त रीति से सप्तभङ्गी युक्त सम्पूर्ण वस्तु को स्यावादी ही मानते हैं । स्याद्वादी और प्रमाणवाक्य ये दोनों पद एक अर्थ के बोधक होते है । नय वाक्य तो प्रमाणवाक्य न होने के कारण स्याद्वापरूप नहीं माना जाता है। इस का समाधान यह है कि "साम्प्रत नय' में सप्तभंगी का जो प्रदर्शन भाव्यकार ने किया है, उस का तात्पर्य यह नहीं मानना चाहिए कि साम्प्रतनय भी सप्तमग परिकरित सम्पूर्ण वस्तु को स्वीकार करता है, इसलिए प्रमाणवाक्य है; किन्तु “अहव पच्चपन्नो” इत्यादि भाष्य का तात्पर्य "ऋजुसूत्र" की अपेक्षया साम्प्रतनय में क्या विशेष है, इस को स्पष्ट करने में है । "ऋजसूत्र" सदभाव और असदभाव से अविशेषित वर्तमान कुम्भमात्र ग्राही है और “साम्प्रतनय' सद्भाव और असदभाव इन दोनों में से किसी एक से विशेषित कुम्भ का ग्राहक है। सात में से किसी एक भग द्वारा सदभाव और असदभाव इन दोनों में से अन्यतर का
क होने के कारण ही "साम्प्रतनय" में ऋजसूत्र की अपेक्षा से साम्प्रत का विशेषिततर अभ्युपगम दिखाया गया है । यह सम्प्रदाय है अर्थात् जैनाचार्यो की परम्परा है ।
[लिंगादिभेद से अर्थभेद स्वीकार-साम्प्रत की विशेषता ] [अथवा लिङ्ग] अविशेषित अर्थ ग्राही ऋजुसूत्र के अभ्युपगम की अपेक्षा से विशेषिततर अर्थग्राहिता ही साम्प्रत की विशेषता है, इस को अन्य प्रकार से भी बताना है । वह प्रकार यह है : लिङ्ग, वचन और सख्या आदि का भेद रहने पर भी ऋजुसूत्र अर्थ का नहीं मानता है। साम्प्रतनय तो लिङ्ग, वचन, संख्या आदि के भेद से अर्थ का भेद मानता है। जैसे-"तटः तटी तटम्” यहाँ साम्प्रतनय को तीनों शब्दों का अर्थ भिन्न भिन्न अभिमत है । "गुरुः, गुरवः” यहाँ एकवचन बहुवचन के भेद से दोनों शब्दों के अर्थ में