Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 197
________________ १८० उपा. यशोविजयरचिते ___ यह आशंका उठ सकती है कि-"घटपद से चेष्टाश्रयरूप व्युत्पत्त्यर्थ का बोध न रहने पर भी घटत्वरूप से घट का बोध होता है। वैसे ही कुटपद का व्युत्पत्त्यर्थ जो कौटिल्य का आश्रय, उस का बोध हुए विना भी घटत्वरूप से घट का बोध होता है, अतः व्युत्पत्ति निमित्त और प्रवृत्तिनिमित्त इन दनों में भेद ही माना चाहिए। तब तो घटकुटादि पदों में पर्यायता ही सिद्ध होगी। इस स्थिति में घटकुटादि पद के अर्थ में भेद सिद्ध नहीं गा?"-परन्तु, यह आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि जिस व्यक्ति को पूर्णरूपसे व्युत्पत्ति हुई रहती है, उस को घटपद से चेष्टाश्रयत्वरूप से ही घटरूप अर्थ में संकेत का ज्ञान होता है और चेष्टाश्रयत्वरूप से ही बोध भी होता है । तथा कुटपद से कौटिल्ययोगित्वरूप से घट में शक्तिज्ञान होता है और कौटिल्ययुक्त घट का बोध होता है। जिस को पूर्णरूप से व्युत्पत्ति नहीं है, उस को घटत्वरूप से घटरूप अर्थ में विपरीत संकेत ज्ञान के द्वारा घटकुटादि शब्द से घटत्वरूप से घट का बोध होता भी हैं परन्तु उस से अर्थ की व्यवस्था सिद्ध नहीं है। यदि विपरीतशक्ति का ज्ञान घटरूप अर्थ में रहता है तो पटपद से भी घटरूप अर्थ का बोध होता है, एवम् पटरूप अर्थ मे घटपद का विपरीत शक्तिज्ञान जिस को है, उस व्यक्ति को घट पद से पटरूप अर्थ का बोध होता है। इन बोधों में भी अर्थव्यवस्थापकत्व हो जायगा, तब घटपद में पटपदार्थकता का प्रसंग होगा और पटपद में घटपदार्थकता का प्रसंग होगा, तथा घट-पट इन दोनों पदों में पर्यायता का प्रसंग होगा, इसलिए व्युत्पत्त्यर्थबोध के बिना भी विपरीत संकेतग्रह से घटकुटादि पदों के द्वारा घटत्वरूप से घटरूप अर्थ का बोध मानकर घटकुटादि पदों में पर्यायता की सिद्धि नहीं हो सकती है और पूर्णव्युत्पत्ति युक्त पुरुष में व्युत्पत्त्यर्थ बोध के विना पदार्थबोध की सिद्धि भी नहीं हो सकती है। यदि कहा जाय कि-"व्युत्पत्तिनिमित्त चेष्टाश्रयत्व-कौटिल्याश्रयत्व आदि के द्वारा ही घटकुटादि शब्दों से पदार्थबोध समभिरूढनय यदि मानेगा तो उस के मत में पारिभाषिक शब्दों में अनर्थकता का प्रसंग आवेगा । जैसे-समभिरूढ के मत से “गुणपद" गुणणक्रियाश्रयत्वेन गुगणक्रियायुक्त पदार्थ का बोधक बनेगा। वृद्धिपद वर्द्धन क्रिया योगित्वरूप से वर्द्धनक्रियाश्रय का बोधक बनेगा। "वैयाकरण लोग" 'अ, ए, ओ' इन तीन वर्णा, की 'गुण' पारिभाषिकी संज्ञा देते है, इसलिए 'अ, ए, ओ' इन तीनों वर्गों में "गुण" शब्द को वैयाकरण लोग पारिभाषिक मानते हैं । गुणणक्रिया का योग तो उन वर्णा में कुछ देखने में आता नहीं है, इसलिए गुण यह पारिभाषिक शब्द समभिरूढ की मान्यता के अनुसार अनर्थक बन जायगा । पवम् वयाकरण लोग “आ, ऐ, औ" इन तीनों वर्णा के लिए वृद्धि ऐसी पारिभाषिक संज्ञा करते हैं, इसलिए उन तीनों वर्णा का वाचक 'वृद्धि' शब्द पारिभाषिक माना जाता है । समभिरूढ के मत में वृद्धिशब्द वर्द्धनक्रियायुक्त अर्थ का ही वाचक बनेगा, क्योंकि व्युत्पत्ति निमित्त से ही पद में अर्थवाचकता इस को मान्य है। "आ, ऐ, औ" इन तीनों वर्गों में वर्द्धनक्रिया का योग तो देखने में आता नहीं है, इसलिए वैयाकरणों का पारिभाषिक वृद्धिशब्द अनर्थक बन जायेगा, यह खेद की बात होगी। इस का समाधान देते हुए, समभिरूढनय का कहना यह है कि “पारिभाषिक" शब्दों में जो अनर्थकत्व की आपत्ति देते हो वह होती ही है और वह आपत्ति हम को इष्ट ही है।

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