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उपा. यशोविजयरचिते संक्रमवदथऽपि पदसङ्क्रमः किं न स्यादिति चेत् ? न, अर्थस्येव पदस्यापि क्रियोपरागेण भेदादर्थासंक्रमस्वीकारात् । हरीत्यादौ च पदसारूप्येणैवैक शेषः, न त्वर्थसारूप्येणेति दिक् ॥ अस्याप्युपदर्शिततत्त्वो भावनिक्षेप एवाभिमतः ॥६॥ शब्द अस्वभाव रूप धर्म ग्रह द्वारा अर्थ का बोध भले करा देता हो, व्युत्पत्ति निमित्तधर्म के उपराग से तो अर्थ का बोध नहीं कराता है, इसलिए उस में अनर्थकत्व मानना समभिरूढ को अयुक्त नहीं है । अर्थ स्वभावभूत धर्म के द्वारा अर्थबोधकत्व नैमित्तिकपद में रहता है, “पारिभाषिक" शब्द में वैसा अर्थबोधकत्व नहीं रहता है किन्तु अस्वभावभृत धर्मोपग्रह द्वारा अर्थबोधकत्व रहता है ।- यह वैषम्य भी "नैमित्तिक' शब्द और “पारिभाषिक शब्द में युक्त ही है। __ यदि यह कहा जाय कि-"एक ही हरि पद विष्णु, इन्द्र, सिंह, कपि आदि अनेक अर्थी का बोधक बनता है इसलिए “हरि" पद अनेकार्थक कहा जाता है। यहाँ एक ही हरि पद में विष्णु, इन्द्रादि नाना अर्थो का संक्रमण जैसे होता है, वैसे ही एक ही घटरूप अर्थ घट-कुटादि नाना शब्दों से वाच्य होता है, अतः एक घटरूप अर्थ में घट कुटादि नाना पदों का संक्रमण क्यों नहीं माना जायगा ? यदि समभिरूढनय अर्थ में पदसंक्रम को स्वीकार कर लेगा तो संज्ञा के भेद से अर्थ भेद का स्वीकार करना असंगत क्यों नहीं होगा ?"-परन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि घटनक्रिया के योग से जैसे घटरूप अर्थ भिन्न होता है वैसे ही कुट्टन क्रिया के योग से भी भिन्न होता है। इसीतरह भिन्नभिन्न क्रिया के योग से वाचक पद भी भिन्न भिन्न होता है । "विष्णुरूप” अर्थ में "हरि" शब्द “हरति पापं भक्तानां' इस व्युत्पत्ति के अनुसार पापापहरण क्रिया के उपराग से प्रवृत्त होता है । “इन्द्ररूप” अर्थ में हरति ऐश्वर्य असुराणाम्" इस व्युत्पत्ति के अनुसार ऐश्वर्यापहरण क्रिया के उपराग से प्रवृत्त है, सिंहरूप अर्थ में "हरति प्राणान् जन्तूनाम्” इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्राणापहरणक्रिया के योग से प्रवृत्त होता है अथवा "हरति वाहनतया देशान्तर प्रापयति स्वस्वामिनीम् चण्डिकाम्” इस व्युत्पत्ति के अनसार, चण्डिकादेवी का वाहन होने के कारण उस को एकदेश से दूसरे देश में ले जाता है अतः देशान्तरप्रापण क्रिया के योग से हरि शब्द सिंहरूप अर्थ में प्रवृत्त होता है। इस तरह क्रिया के भेद से हरि शब्द भी भिन्न-भिन्न ही है। अनेक अर्थ का वाचक एक "हरि" शब्द नहीं है इसलिए एकपद में अनेक अर्थ का संक्रम भी समभिरूढ को मान्य नहीं है तो अर्थ संक्रम के दृष्टान्त से एक अर्थ में विविध पदों के संक्रम की आपत्ति देना युक्त नहीं है।
यदि यह कहा जाय कि-"संज्ञा के भेद से अर्थ का भेद माना जायगा तो "हरिश्च हरिश्च हरी” इत्यादि समासस्थल में एकशेष का विधान व्याकरणानुशासन से होता है, वह असंगत होगा, क्योंकि एकशेषस्थल में पदभेद से अर्थ का भेद होगा, तब एकार्थबोधकत्वरूप समानधर्म दोनों हरिपदों में न होने के कारण अर्थसारूप्य नहीं रहेगा । इस तरह समभिरूढ का मन्तव्य व्याकरणानुशासन से विरुद्ध बनेगा।"-परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं क्योंकि एकशेषविधायक व्याकरणानुशासन का यह तात्पर्य नहीं है कि अर्थ.