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नयरहस्ये समभिरूढनयः अथार्थबोधकत्वमात्रे यदि पदत्वभावस्तदा यदृच्छाशब्दसङ्केतादपि तदभिव्यक्तः किं वैषम्यमिति चेत् ? न, पदानां व्युत्पत्तिनिमित्तोपरागेणैवार्थवोधकत्वस्वाभाव्यात्, यदृच्छासङ्केतोपालवादस्वभावभूतस्यैव धर्मस्य ग्रहेण वैषम्यात् । अथ नानार्थकपदेऽर्थतब 'हन्त" पद के पुकार से व्यर्थ का खेद प्रगट क्यों करते हो ? यहाँ ग्रन्थकार ने "पूत्कार" शब्द का प्रयोग किया है, उस का तात्पर्य यह है कि किसी अर्थ में अनभीष्टत्व सिद्ध करने के लिए मुख से “पुत्” इसतरह के "कुत्सित" शब्द का उच्चारण करते हैं, उसी का आरोप पूर्वपक्ष वाक्य में प्रयुक्त "हन्त' शब्द में किया गया है, उस में अनादरता का सूचन "किं हन्तेति पुत्कारेण" इस वाक्य से किया गया है । “समभिरूड नय' ने “पारिभाषिक' शब्द की अनर्थकता को स्वीकार कर लिया है, उस में प्राचीन आचार्यो की सम्मति है । यह दिखाने के लिए उन का वचन दिखा रहे हैं कि "तत्र पारिभाषिकी नार्थतत्त्वं ब्रवीती'ति । इस का अर्थ यह है कि व्युत्पत्ति निमित्त क्रिया का आश्रय किए बिना जो शब्द किसी अर्थ में संकेतित किया जाता है. वह शब्द " भाषिक संज्ञा' शब्द से कहा जाता है या पारिभाषिक शब्द से व्यवहृत होता है । जैसे पूर्व में उदाहृत पारिभाषिकी संज्ञारूप गुण-वृद्धि शब्द अर्थतत्त्व को बोधित नहीं करते हैं, क्योंकि व्युत्पत्तिनिमित्त क्रिया का योग उस से बोधित अर्थ में नहीं रहता है, पारिभाषिक शब्द वास्तविक अर्थ का बोधक नहीं बनता है, अतः उस में अनर्थकत्व प्रसंग अनिष्ट नहीं है, किन्तु "समभिरूढ" को इष्ट ही है।
[नैमित्तिक और पारिभाषिक संज्ञाओं में साम्यापत्ति का निवारण ] [अथार्थ बोधक] यह आशंका उठ सकती है कि-"पद्यते, गम्यते अर्थो येन तत् पदम्" इस विग्रह के अनुसार जिससे अर्थ का बोध होता हो, वह “पद” कहा जाता है । तब तो “अर्थबोधकत्वमात्र" पद में पदत्व का व्यवस्थापक सिद्ध हुआ। अब देखिये कि *यहच्छाशब्द से भी अर्थ की प्रतीति होती है। किसी ने अपने पुत्र का नाम यदि "डित्थ" रख लिया हो, तो "डित्थ" शब्द से ही उस के पुत्र की प्रतीति उन सभी को होती है जिन व्यक्तियों को उस "डित्थ" शब्द का संकेतज्ञान रहता है । यदृच्छाशब्द ही “पारिभाषिक" शब्द कहा जाता है । अर्थ बोधकत्व जब पारिभाषिकशब्द में भी रहता है तो "नैमित्तिक संज्ञा" अर्थात् चेष्टादि क्रिया को निमित्त मानकर जो घटादि संज्ञा की जाती है उसकी अपेक्षा से डित्थादिरूप पारिभाषिक संज्ञा में कुछ ही वषम्य नहीं रहेगा क्योंकि दोनों संज्ञाओं में अर्थबोधकत्व का अनुभव होता है। तब पारिभाषिक शब्द में अनर्थकत्व को इष्ट मान लेना अयुक्त है ।"-तो यह शङ्का ठीक नहीं है । क्योंकि व्युत्पत्ति निमित्त के उपराग से ही पदों में अर्थबोधकत्वस्वभावता आती है, जैसे-चेष्टाश्रयत्वरूप व्युत्पत्तिनिमित्तधर्म के सम्बन्ध से ही घटपद में चेष्टाश्रय घटरूपअर्थ की बोधकता आती है। यद्यपि यदृच्छा शब्द भी संकेत के बल से “डित्थत्व" आदि धर्म के उपराग से अर्थ का बोधक होता है, किंतु वह धर्म चैत्रपुत्ररूप अर्थ का स्वभावभूत नहीं होता है इसलिए यहच्छा. स्वतत्र इच्छा से रखे गये नाम को यदृच्छाशब्द कहते हैं ।