Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 194
________________ नयरहस्ये सभभिरूढः १७७ व्याख्या में बताया गया है, अतः यहाँ उस का पुनः विवरण होना आवश्यक नहीं है । इस व्याख्या गाथा में तो निषेधबोधक "न" पद स्पष्टरूप से पठित है ही । अतः सूत्र में “अवस्तु" पद का तात्पर्य निषेधरूप अर्थ में लगाना संगत है। इस सूत्र और व्याख्या से पक वस्तु का अन्य वस्तु में संक्रमण का निषेध सिद्ध होता है, जिस का ग्रन्थकार ने "असक्रम गवेषण" शब्द से संकेत किया है । ग्रन्थकार यहाँ तत्त्वार्थाधिगम सूत्र (१३५) के भाष्य का भी उद्धरण करते हैं । “सत्सु अर्थेषु असंक्रमः ममभिरूढः” इस का अर्थ यह है कि वर्तमान पर्यायापन्न घटादिरूप अर्थो में घटादि शब्दों का अपना अर्थ छोडकर के अन्य अर्थो में संक्रम अर्थात् गमन नहीं होता है । जैसे घटशब्द का संकेत विद्यमान चेष्टात्मक घटरूप स्वार्थ को छोडकर कुट कुम्भ आदि अर्थ का अभिधान नहीं करते हैं क्योंकि कुट-कुम्भ आदि अर्थ घट शब्द का अभिधेय नहीं है। यदि कुट-कुम्भादि अर्थ भी घट शब्द का अभिधेय बन जाय तो सर्वसंकरादि दोष उपस्थित होंगे, इसलिए एक शब्द से अभिधेय अर्थ उस से अन्य शब्द का अभिधेय नहीं होता है । इस प्रकार तत्वार्थ भाष्य से भी ग्रन्थकार के लक्षण में सवाद प्राप्त हो जाता है । [ नैगमादिनयों में अतिव्याप्ति के निवारण का उपाय ] (तत्त्वं च०) ग्रन्थकार यहाँ नव्य न्याय का विशेष विचार प्रस्तुत करते हैं-घटपटादि शब्दों में अर्थ का सक्रम नगमादिनय भी नहीं मानते हैं, इसलिए उन में भी पूर्वोक्तलक्षण की अतिव्याप्ति होगी । इस का वारण करने के लिए "सज्ञाभेद से अर्थ भेद का स्वीकार करना" ऐसा लक्षण माना जाय तो वह भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि नैगमादि नय, यद्यपि "घट-कुट-कुम्भ" आदि संज्ञाओं के भेद रहने पर घटादिरूप अर्थ में भेद नहीं मानते हैं, तथापि घटपटादिरूप संज्ञा के भेद से घटपटादिरूप अर्थो में भेद को मानते ही हैं, इसलिए अतिव्याप्ति तदवस्थ रहती है । अतः "सज्ञाभेद से नियत अर्थ भेद का स्वीकार करना" यह लक्षण यदि माना जाय तो, अतिव्याप्ति नहीं होगी, क्योंकि नैगमादि नय घटपटादिरूप सज्ञा के भेद से अर्थ का भेद यद्यपि मानते हैं तो भी घट-कुट-कुम्भ आदि संज्ञा का भेद होने पर घटकुटादि अर्थ में भेद नहीं मानते हैं । अतः नैगमादि से स्वीकृत अर्थ भेद सज्ञाभेद का नियत अर्थात् व्यापक नहीं बनता है। इसलिए अतिव्याप्ति का सम्भव नैगमादि में नहीं होता है। तो भी "एवम्भूत नय' में अतिव्याप्ति का सम्भव रहता ही है, क्योंकि संज्ञा के भेद से अर्थ का भेद समभिरूढ के जैसे एवम्भूत नय भी मानता है । एवम्भूत के मत में घट, कुट, कुम्भ आदि सज्ञा के भेद से घट, कुट आदि अर्थो में भेद माना जाता है, अतः 'सज्ञाभेद व्यापक अर्थ भेद का स्वीकार' यह लक्षण "एवम्भूत" में भी घटता है । इसलिए "एवम्भूतान्यत्व" यह विशेषण उक्त लक्षण में लगा करके अतिव्याप्ति का वारण हो सकता है। इस स्थिति में "एवम्भूत नय से भिन्न और सज्ञाभेदनियतार्थभेद माननेवाला' यह समभिरूढ का लक्षण निष्पन्न होता है । एवम्भूत में सज्ञाभेद से अर्थ भेद का स्वीकार है, इसलिए लक्षणगत विशेष्यांश वहाँ घटता है, तो भी "एवम्भूतान्यत्वरूप” विशेषणांश नहीं घटता है क्योंकि स्व में स्व का भेद नहीं माना जाता है, अतः एवम्भूत का भेद नहीं रहता २३

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