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उपा. यशोविजय रचिते
समभिरूढ” इति तत्वार्थभाष्यम् । तत्त्वं च यद्यपि न संज्ञाभेदेनार्थ भेदाभ्युपगन्तृत्वम्, घटपटादिसंज्ञाभेदेन नैगमादिभिरप्यर्थ मेदाभ्युपगमात् तथापि संज्ञाभेदनियतार्थ - भेदाभ्युपगन्तृत्वं तत् । एवम्भूतान्यत्व विशेषणाच्च न तत्रातिव्याप्तिः ॥
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घट शब्द से वाच्य जो अर्थ वह कुट कुम्भ आदि शब्दों से वाच्य नहीं होता है । यही हेतु है कि " समभिरूढनय" पर्याय शब्दों को नहीं मानता है । यदि पर्याय शब्द माना जाय तो अनेक पर्याय शब्दों का वाच्य-अर्थ एक होगा, तब घटशब्दवाच्य अर्थ में कुम्भादिशब्दवाच्य अर्थों का संक्रम होगा, इस से एक शब्द से वाच्य वस्तु अन्य शब्दों के वाच्यार्थ से अभिन्न बन जायगी, तब घटादिरूप अर्थ में पटशब्दवाच्य अर्थ का भी संक्रम होगा । इस स्थिति में "यह घट है या पट है" इस तरह के संशय का प्रसंग आयेगा । अथवा "घट में यह पट है" इस तरह के विपरीत निश्चयरूप विपर्वय का प्रसंग आवेगा । अथवा "पटादि में घटादि का अध्यवसाय होने से घटपटादि अर्थो में एकता का प्रसंग होगा । अथवा मेचकमणि में जैसे अनेक रूपों की सौंकीर्णता रहती है वैसे घटपटादि अर्थो में संकीर्णता की आपत्ति होगी। इन दोषों की निवृत्ति के लिए समभिरूढ को घट - कुम्भ -कुट ये तीनों शब्द भिन्न भिन्न अर्थ के वाचक मानना इष्ट है । ऐसा मानने पर पूर्वक्ति संशय विपर्यय आदि दोष नहीं उपस्थित होते हैं क्योंकि वस्तु में वस्त्वन्तर का संक्रमण नहीं होता है । शब्दनय तो पर्यायभूत अनेक शब्दों का एक वाच्यार्थ मानता है, इसलिए उस में लक्षण की अतिव्याप्ति का प्रसङ्ग नहीं है । नैगम, व्यवहार, संग्रह और ऋजुसूत्र भी शब्दनय के जैसे ही अनेक पर्यायों का वाच्य एक अर्थ मानते हैं, इसलिए उन नयों में भी समभिरूड लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं है । इस लक्षण में "समभिरूढ" पद लक्षण का ates है और अवशिष्ट दो पद लक्षण के निर्देशक हैं । स्वकथित लक्षण को प्रमाणित करने के लिए ग्रन्थकारने नियुक्तिकार का वचन यहाँ उद्धृत किया है-वत्थूओ संकमणं इत्यादि [ " वस्तुनः संक्रमणं भवति अवस्तु नये समभिरूढे"] समभिरूडनय में एक वस्तु का संक्रमण अन्यवस्तु में नहीं होता है, यह सूत्रार्थ है । यद्यपि इस सूत्र में संक्रमणनिषेध के लिए अभावबोधक " नञादि" पद का प्रयोग नहीं है, तथापि " अवस्तु" पद से ही निषेधरूप अर्थ का संकेत मिलता है । संक्रमण अवस्तु है, ऐसा कहने से संक्रमण का निषेध प्रतीत हो जाता है । विशेषावश्यक में इस सूत्र की व्याख्या
* दव्वं पज्जाओ वा वत्थु वयणंतराभिधेयं जं ।
न तदन्नवत्थुभावं संकमए संकरो मा भू || २२३७ || इस गाथा से की गई है ।
द्रव्यपद से कुम्भ-कुट आदि विवक्षित हैं । पर्यायपद से कुम्भादिगत वर्ण आदि विवक्षित हैं || व्याख्या का तात्पर्य यह है कि प्रस्तुत घटादिपद से भिन्न जो कुम्भादि पद, उस का वाच्य जो कुम्भादि वस्तु, वह घटादिशब्द वाच्य वस्तु (भाव) में संक्रमण नहीं करता है, क्योंकि "संकर" आदि दोष उपस्थित होते हैं । "संकर" आदि दोष कैसे आते हैं और कैसे उन का निवारण होता है, इस का विवरण पूर्व में लक्षण की
* द्रव्य पर्यायो वा वस्तु वचनान्तराभिवेयं यत् । तदन्यवस्तुभाव संक्रामति संकरो मा भूत् ॥ २२३७॥