Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 189
________________ १७२ उपा. यशोविजयरचिते नयवाक्य से भेद विवक्षा करके बोध होता है । काल:-'जीवादि वस्तु कथञ्चित् अस्तित्वरूप ही है ऐसा वाक्यप्रयोग करने पर जीव में जिस समय अस्तित्व धर्म की स्थिति रहती है, उसी समय दूसरे भी अनन्त धर्मा की स्थिति जीव आदि में रहती है, अतः अभिन्नकाल की अपेक्षा से अस्तित्व और तदन्य धर्मो में अभेद मानकर तथाविध अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन जिस वाक्य से होता है वह वाक्य सकलादेश कहा जाता है। आत्मरूपः-जो अस्तित्व का आत्मरूप जीवगुणत्वात्मक है. वही जीवगणत्व अन्य ज्ञानादि का भी आत्मरूप है, इसलिए आत्मरूप से जीव के सभी गुणों में अभेद होता है। ___अर्थः-अर्थपद से अस्तित्वादि धर्मा का द्रव्यरूप आधार विवक्षित है, अस्तित्व का आधार जो जीवादिरूप द्रव्य है वही अन्य धर्मो का भी आधार है, इसलिए आधाररूप अर्थ से भी सभी धर्मा में अभेद सिद्ध होता है। - ४सम्बन्ध-संबन्ध पद से अविष्वग्भाव अर्थात् अपृथक्भावरूप संबन्ध विवक्षित है, जो धर्मो में धर्मी के साथ रहता है, वह कथञ्चिद तादात्म्यरूप है । उस संबन्ध से जैसे अस्तित्व जीवादि द्रव्य में रहता है, वैसे अन्यधर्म भी उसी संबन्ध से वहाँ रहते हैं, इसलिए सम्बन्ध के अभेद से जीवादिगत सभी धर्मों में अभेद रहता है। पउपकारः-अस्तित्वरूप धर्म से धर्मी में स्वप्रकारक बुद्धि विषयत्वरूप जो उपकार होता है, वही उपकार अन्य धर्मो से भी जीवादिरूप धर्मी में होता है, क्योंकि दूसरे धर्म भी धर्मी पर स्वप्रकारक बुद्धि विषयत्वरूप उपकार को करते हैं, इसलिए उपकार के अभेद से जीवादिगत सभी धर्मो का अभेद होता है। गुणिदेशः-गुणिद्रव्य को कहते हैं, उस का सम्बन्धि देश वही होता है जिस क्षेत्र में द्रव्य रहता हो । अस्तित्वरूप धर्म वाला द्रव्य जिस देश में रहता है, उसा देश में अन्य धर्म वाला द्रव्य रहता है इसलिए सभी धर्मों का गुणि देश वह एक द्रव्य होता है, अतः सभी धर्मों के गुणि का क्षेत्ररूप देश एक है, इसलिए क्षेत्ररूप गुणिदेश के अभेद से द्रव्यगत सभी धर्मों का अभेद होता है ।। संसर्गः- अस्तित्वादि किसी धर्म का जो वस्तु के साथ संसर्ग होता है, वही मंसर्ग वस्तगत अन्य धर्मो का भी वस्तु के साथ होता है इसलिए सभी धर्मो का वस्तु के साथ संसर्ग एक ही सिद्ध होता है, अतः संसर्ग के अभेद से धर्मा का अभेद सिद्ध होता है। यहाँ शंका होना सहज है कि-'सम्बन्ध और संसर्ग इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही होता है, तब कालादि में सम्बन्ध और संसर्ग इन दोनों के ग्रहण से पुनरुक्ति क्यों की जाती है ?'-इस का समाधान यह है कि सम्बन्ध पद से कथञ्चित् तादात्म्यरूप अविश्वगभाव का ग्रहण किया गया है, इसलिए वहाँ अभेद प्रधान और भेद गौण रहता है, इसलिए प्रधानभूत सम्बन्ध के अभेद से धर्मो का अभेद' वहाँ सिद्ध होता है। "संसर्ग' पद से तादात्म्य भिन्न सम्बन्ध की विवक्षा है, इसलिए यहाँ भेद प्रधान और अभेद अप्रधान है, अतः संसर्ग अप्रधानीभूत अभेद को लेकर द्रव्यगत धर्मों का अभेद सिद्ध करता है। यह विशेष होने के कारण सम्बन्ध और ससर्ग में पुनरुक्ति दोष नहीं आता है।

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