Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 171
________________ १५४ उपा. यशोविजयरचिते सदो" ॥त्ति [अनुयोगद्वार-१५२] सूत्रम् । अत्रापि तरप्रत्ययमहिम्ना विशेषिततमाधोवर्ति विषयग्रहणान्न समभिरूढायतिव्याप्तिरिति स्मतव्यम् । अध्यवसायविशेषरूप है। इस का अभिप्राय यह है कि ऋजुसूत्र प्रत्युत्पन्न अर्थात् वर्तमान अर्थ का ग्राही है, साम्प्रत भी वर्तमान अर्थ को ही मानता है और परकीय तथा अतीतअनागत अर्थ को जैसे "ऋजुसूत्र" नहीं मानता है वैसे साम्प्रत भी नहीं मानता है । -इतना साम्य होने पर भी ऋजुसूत्र लिंगभेद होने पर भा वस्तु को अभिन्न मानता है जैसे "तटः, तटी, तटम्” यहाँ पुंस्त्व, स्त्रीत्व, नपुसकत्व रूप लिंग का भेद होने पर भी "तट" रूप अर्थ तो एक ही है, ऐसा उस का मत है । तथा एकवचन, बहुवचन के भेद होने पर भी “गुरुः, गुरवः” इत्यादि स्थलों में गुरु आदि अर्थ को वह एक ही मानता है । तथा नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप इन चारों निक्षेपों को ऋजुसूत्र मानता है।-साम्प्रतनय लिंगभेद से और पचन आदि के भेद से अर्थ का भेद मानता है । अर्थ में लिंगादि के भेद रहने पर अर्थ में एकत्व नहीं मानता है, इस का विवरण पूर्व में सविस्तर किया जा चुका हैं । तथा “नामादि" निक्षेपों में से भी "साम्प्रतनय” भावनिक्षेपमात्र को मानता है, शेष तीन निक्षेपों को नहीं मानता है, यही "ऋजुसूत्र" की अपेक्षा से "साम्प्रत" में विशेषता है, यह विशेषता साधारण नहीं किन्तु अतिशयित विशेषता है, इसलिए विशेषितर ऋजुसूत्राभिमत अर्थ का ग्राही साम्प्रतनय होता है । पूर्वलक्षण में भावमात्रबोधकता में शब्द का पर्यवसान जो कहा गया है, उस का भी आशय वही है जो "विशेषिततर" विशेषण लगाने पर निकलता है। अतः पूर्वोक्त लक्षण में साम्प्रदायिक लक्षण से समर्थन प्राप्त हो जाता है । [विशेषिततर प्रत्युत्पन्न अर्थग्राही शब्दनय ] इस को अधिक समर्थन करने के लिए विशेषावश्यकसूत्र का प्रमाणरूप से यहाँ उद्धरण हैं-"* इच्छइ विससियतरं पच्चुप्पण्णं णओ सद्दो ॥ त्ति ॥” (२१८४) यही सूत्र साम्प्रदायिक लक्षण में प्रमाण है । सूत्र में प्रत्युत्पन्न शब्द से ऋजुसूत्राभिमतअर्थग्राहित्व साम्प्रतनय में प्राप्त होता है, जो साम्प्रदायिकलक्षण में प्रविष्ट है। विशेषिततर शब्द तो साक्षात् हो सूत्र तथा साम्प्रदायिक लक्षण में उक्त है, इसलिए यह सूत्र साम्प्रदायिक लक्षण में प्रमाणरूप है । सम्प्रदायमतानुसार साम्प्रतनय मे "शब्द" इस संज्ञान्तर का जो व्यवहार किया गया है, वह भी सूत्रानुसार ही है। अपनी इच्छानुसार कल्पित नहीं है, क्योंकि सूत्र में भी “साम्प्रतनय" के लिए "शब्द" पद से व्यवहार किया गया है, अतः सूत्र से प्रमाणित साम्प्रदायिक लक्षण के द्वारा अपने लक्षण का समर्थन करना यह संगत ही है। पूर्वोक्त लक्षण में अध्यवसाय अथवा विषय मे तत् तत् अन्यत्व विशेषण लगाकर “समभिरुढ और एवंभूत में अतिव्याप्ति का वारण होता है. यह कहा जा चुका है। सम्प्रदायानुसारी लक्षण तत्तद् अन्यत्व विशेषण लगाकर अतिव्याप्ति वारण करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि * इच्छति विशेषिततर प्रत्युत्पन्न नयः शब्दः ।

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