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नयरहस्ये सप्तभङ्गी पटादिगतैस्त्वक्त्राणादिभिः परपर्यायैरसद्भावेनार्पितोऽकुम्भो भण्यते, कुम्भे कुम्भत्वानवच्छेदकधर्मावच्छिन्नाकुम्भत्वसत्त्वात् । न चैवं कुम्भत्वानवच्छेदकप्रमेयत्वावच्छेदेनाप्यकुम्भत्वापत्तिः, नानाधर्मसमुदायरूपकुम्भत्वे प्रमेयत्वस्याप्यवच्छेदकत्वात् ॥२॥ (द्वितीयो भंगः)
[ सप्तभंगी के द्वितीय भंग की नियत्ति ] [पटादि] "स्याद नास्त्येव घटः” इस द्विताय भंग का समर्थन इस प्रकार है । पटादि में त्वक्त्राण अर्थात शरार की त्वचा का संरक्षण आदि पर्याय रहते हैं, वे पर्याय घट के नहीं हैं, परन्तु घट से भिन्न पटादि के हैं, अतः घट के लिए पट के त्वक्त्राणादि पर्याय परपर्याय कहे जाते हैं । उन त्वक्त्राणादि पर्यायों से युक्त पटादि की ही सत्ता रहती है, कुम्भ की सत्ता नहीं रहती है, इसलिए त्वक्त्राणादि पर्यायावच्छिन्न सत्ता का अभाव घट में रहता है । तादृश सत्ताभाव से विशेषित कुम्भ अकुम्भ कहा जाता है, अर्थात् सभी घट की त्वक्त्राणादि पर्यायों से असत्ता की विषक्षा रहने पर “असन् घटः” अथवा “स्याद् नास्त्येव कुंभः" यह द्वितीयभंग उपस्थित होता है। क्योंकि कुंभ में कुंभत्व के अनवच्छेदक जो त्वक्त्राणादि परपर्यायरूप धर्म उस से अवच्छिन्न अकुम्भत्व की सत्ता रहती है। आशय यह है कि "कुम्भत्व की सत्ता के अवच्छेदक कुम्भगत ऊर्ध्वग्रीवत्वादि कुम्भ के पर्याय ही होते हैं । पटादि के पर्यायभूत त्वक्त्राणादि कुम्भपदार्थ की सत्ता के अवच्छेदक नहीं होते हैं क्योंकि वे धर्म कुम्भसत्ता के व्यधिकरण होते हैं, इसलिए त्वक्त्राणादि परपर्यायावच्छिन्न कुम्भ की सत्ता नहीं होती है, अतः त्वक्त्राणादि परपर्यायावच्छिन्न अकुम्भत्व की ही सत्ता कुम्भ में रहती है। इसलिए "स्यान्नास्त्येव घटः” “असन् घटः” इत्यादि द्वितीय भंग के प्रयोग उस दशा में होते हैं ।
[प्रमेयत्वाच्छेदेन अकुम्भत्व की आपत्ति का निरसन ] यदि यह कहा जाय कि-"जो धर्म जिस का अवच्छेदक होता है, वह धर्म उस के अभाव का अवच्छेदक होता है, इस नियम को मान कर ही कुम्भत्वानवच्छेदक त्वक्त्राणादि परपर्यायों को अकुम्भत्व का अवच्छेदक अर्थात् कुम्भत्वाभाव का अवच्छेदक मान कर कुम्भ में अकुम्भत्व की सत्ता को सिद्ध किया है । इस रीति से तो कुम्भ में प्रमेयत्वावच्छेदेन अकुम्भत्व की आपत्ति आवेगी क्योंकि जैसे त्वक्त्राणादि पर पर्याय कुम्भत्व के अनवच्छेदक होते हैं, वैसे ही प्रमेयत्व भी कुम्भत्व का अनवच्छेदक है, इसलिए अकुम्भत्व का अर्थात् कुम्भत्वाभाव का अवच्छेदक बन जायगा, तब प्रमेयत्वरूप से असदभावविशेषितकुम्भ अकुम्भ कहा जायगा, इस स्थिति में प्रमेयत्व को लक्ष में रख कर "स्यान्नास्त्येव कुम्भः'' यह द्वितीयभङ्ग का प्रसंग होगा जो इष्ट नहीं है"-परन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कुम्भगत कुम्भत्व कोई एक धर्म जातिरूप या उपाधिरूप नहीं है किन्तु अनेकधर्मसमुदायरूप है । स्याहादमत में वस्तुमात्र अनन्त धर्मात्मक अभीष्ट है, अत: कुम्भ भी अनन्त धर्मात्मक ही है, इसलिए कुम्भगत कुम्भत्व अनेक धर्मसमुदायरूप होता है । अतः प्रमेयत्व भी कुम्भत्वं का अवच्छेदक बनेगा क्योंकि प्रमेयत्व सर्वत्र रहता है, जब कुम्भत्व का