Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 182
________________ नयरहस्ये व्यवहारनयः १६५ एकस्मिन् देशे स्वपर्यायसत्त्वेनापरस्मिंश्च परपर्यायासवेन विवक्षितो घटोs - घटश्च भण्यते । एकस्मिन् धर्मिणि देशभेदेन भिन्नतया विवक्षिते एकवाक्यादुभबोधतात्पर्येण तथाबोधात् ||४|| [ चतुर्थी मंग: ] अवक्तव्यत्व का निर्वचन यह तृतीय प्रकार का निर्वचन है । तृतीयभङ्ग का असम्भव जो बताया है, वह इस निर्वचन में लागू नहीं होगा । कारण, “घटः स्वपर्यायेण अस्ति परपर्यायेण नास्ति" इन भङ्गों में प्रथम भङ्ग से अस्तित्व का विधान होता है, वही प्रकृत विधि है । तथा द्वितीयभङ्ग से जो अस्तित्व का निषेध होता है वही प्रकृत निषेध है । तृतीय भङ्ग में जो अवक्तव्यत्व निष्ठ विधेयता है उस में प्रकृतविधि निषेध अर्थात् अस्तित्व, नास्तित्व, उस का संसर्ग नहीं रहता है, इसलिए तृतीयभङ्गीय जो अवक्तव्यत्वनिष्ठविधेयता वह प्रकृतविधिनिषेधसंसर्गावच्छिन्न नहीं होती है, किन्तु अवक्तव्यत्वनिष्ठ एकविधेयता से भिन्न विधेयताओं में प्रकृतविधिनिषेधसंसर्गावच्छिन्नत्व रहेगा, अतः तथाविध विधेयताकशाब्दबोधविषयता घट में नहीं रहेगी, इसलिए तथाविध शाब्दबोधाऽविषयत्वरूप अवक्तव्यत्व स्वपरपर्यायोभयावच्छेदेन घट में रह जायगा । अतः " स्यादवक्तव्यः घटः " इस तृतीयभङ्ग की उपस्थिति होने में कोई बाधक नहीं होगा । यहाँ " स्यात्" पद का प्रयोग होने से आपेक्षिक अवक्तव्यत्व का प्रतिपक्ष कथञ्चिदवक्तव्यत्व, कथञ्चिदु अस्तित्व और कथञ्चिद नास्तित्वरूप विशेष में ही विश्रान्त होगा जिस का प्रथमभङ्ग और द्वितीयभङ्ग में ही अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए वक्तव्यत्वविषयक अष्टमभङ्ग की आपत्ति भी नहीं होती है । [ तृतीय भंग ] [ सप्तभगी का चतुर्थभंग ] [ एकस्मिन् ] चतुर्थभङ्ग का निरूपण इस प्रकार है । जब घटादि वस्तु के एक भाग में स्वर्याय कम्बुग्रीवादिरूप से अस्तित्व की विवक्षा होती है और अपरदेश में अर्थात् अन्य अवयव में त्वक्त्राणादि अपरपर्याय से नास्तित्व की विवक्षा होती है, तब अवयव और अवयवी में कथञ्चिद् अभेद होने से अवयवगत अस्तित्व - नास्तित्व का अवयवी में व्यपदेश मानकर कथञ्चित् घट और अघट उभय कहा जाता है। उस स्थिति में “स्यादस्ति घटः स्यान्नास्ति च घटः " इस चतुर्थ भङ्ग की प्रवृत्ति होती है । इस का कारण यह है कि अवयवभेद से अवयवी में कथाचित् भिन्नता की विवक्षा करने पर एक ही अवयवी में " स्यादस्ति घटः स्यान्नास्ति घटः " इस एक वाक्य से ही घटत्व-अघटत्व यह उभय बोध में तात्पर्य होने से कथञ्चित् यह घट है और कथञ्चित् यह अघट है, ऐसा बोध होता है । अवयव के द्वारा अवयवी में अवयव के धर्मों का व्यपदेश "कुण्ठो देवदत्तः" इत्यादि स्थल में प्रसिद्ध है । देवदत्त के हस्तरूप अवयव में कुण्ठत्व धर्म रहने पर देवदत्त समूचे अवयवी में कुण्ठत्व व्यवहार होता है। देवदत्त के नेत्र में काणत्व होने पर देवदत्तरूप समूचे अवयवी में काणत्वव्यवहार "देवदत्तः काणः” इस रूप में होता है, इसी रीति से घट के एक अवयवगत सत्त्वधर्म को लेकर “स्यादस्ति घटः " इस रूप से घट में सत्व व्यवहार तथा घटत्व व्यवहार होता है । एवम्, अपर अवयवगत पररूपेण असत्व धर्म को लेकर

Loading...

Page Navigation
1 ... 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254