________________
१५८
उपा. यशोविजयरचिते भिनिवेशनिरासस्य च सिद्धेः, इदमेव भङ्गान्तरेऽप्यर्पणप्रयोजनं बोध्यम् ॥१॥ (प्रथमभङ्गः )
[ ऋजुसूत्र और साम्प्रतनय में विशेष अतर ] (अथवा) ऋजुसूत्र की अपेक्षा से साम्प्रतनय में जो विशेषता है उस की भावना प्रकारान्तर से इसतरह है कि-व्यवहारनय भाव कुम्भ को मानता है, परतु अतीत, अनागत, परकीय कुंभ को भी वह कुभ मानता है, "ऋजुसूत्र" अतीत-अनागत परकीय कुभ को कुभ नहीं मानता है। किन्तु वर्तमान, स्वकीय कुभ को ही कुभ मानता है। अतः व्यवहार संमत अतीतादि कुभ की अपेक्षा विशेषित कुभ ऋजुसूत्र का विषय हुआ। सांप्रतनय वर्तमान स्वकीय कुभों में भी गृहकोणादि में स्थित अर्थ क्रियारहित कुभ को कुंभ नहीं मानता, अतः ऋजुसूत्राभिमत कुभ की अपेक्षा सांप्रतनयाभिमत कुभ विशेषिततर सिद्ध होता है । इस प्रकार विशेषितार्थ ग्राहित्व ऋजुसूत्र में रहता है और विशेषिततरार्थग्राहित्व सांप्रत में रहता है-यही ऋजुसूत्र की अपेक्षा से सांप्रत में विशेषता है यह भी ख्याल रखना चाहिए कि सांप्रतनय के मत में ऊर्ध्वग्रीवत्व, कपाल, उदर आदि कम पर्यायों के द्वारा सत्वरूप से विशेषित कुम्भ ही कुम्भ माना जाता है । "ऋजुसूत्र" ऊर्ध्वग्रीवत्वादि स्वपर्यायों के द्वारा सत्त्वरूप से अविशेषित ही कुम्भ को कुम्भ मानता है, यह साम्प्रत और ऋजुसूत्र में भेद है, इसतरह की भावना "रिउसुत्तस्साऽविसेसिओ चेव” इस विशेषावश्यकभाष्य गाथा की बृहदवृत्ति में "अविशेषितः" ऐसा पाठ मान कर की गयी है।
[सप्तभंगी के प्रथम भंग की निष्पत्ति ] ऊर्ध्वग्रीवत्व, कपाल, कुक्षि, बुध्नादि स्वपर्यायों से अवच्छिन्न सत्ता से विशेषित कुम्भ ही कुम्भ पद से वाच्य होता है इसीलिए "स्यादस्त्येव घटः'' अथवा "स्यात् सन् घटः" यह सप्तभंगी का प्रथम भंग सिद्ध होता है, क्योंकि 'कुम्भपदार्थ गत ऊर्ध्वग्रीवत्वादि स्वपर्यायावच्छिन्न कुम्भतत्त्व की इदंत्व-कुम्भत्वावच्छेदेन सत्ता का बोध शिष्य को हो' इस हेतु से प्रकृतवाक्य की विवक्षारूप अर्पणा गुरु को होती है, उस विवक्षारूप अर्पणा से ही गुरु शिष्य को उद्देश्य कर के 'यह ऊर्ध्वग्रीवत्वादि विशिष्ट कुम्भ ही कुम्भ है'-इस तरह के वाक्य का प्रयोग करता है अथवा 'ऊर्ध्वग्रीवत्वादि स्वपर्यायों से युक्त जो है वह कम्म ही है' ऐसा वाक्यप्रयोग गुरु करता है । इसी रीति से वाक्यप्रयोग करने पर उद्देश्यभूत शिष्य को सावधारण प्रतीति और ऋजुसूत्रादि सम्मत वादान्तर से नाम कुम्भादि में भी कुम्भत्व मानने का जो विपरीत कदाग्रह उत्पन्न होता है, उस का भी निरास हो जाता है, क्योंकि नामघटादि ऊर्ध्वग्रीवत्वादि स्वपर्यायों से विशिष्ट नहीं होते हैं, इसलिए "इदंत्व-कुम्भत्वावच्छेदेन ऊर्ध्वग्रीवत्वादि पर्यायविशिष्ट कुम्भ की ही सत्ता उक्त वाक्यों से सिद्ध होती है । द्वितीयादि भंगों में गुरु की तथाविध विवक्षारूप अर्पणा का प्रयोजन भी यही होता है कि शिष्य को सावधारण प्रतीति हो और वादान्तर से विपरीत अभिनिवेश का निरास हो । इसतरह साम्प्रतनय की दृष्टि से प्रथम भंग का उपपादन किया गया है। [इति प्रथमो भंगः]