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नयरहस्ये शब्दनयः
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अत एवात्रानुपचरितं घटपदार्थत्वम्, अन्यत्र तूपचरितमिति गीयते विशेषः । अथवा ऋजुसूत्रस्य प्रत्युत्पन्नो विशेषितः कुम्भ एवाभिमतः अस्य तु मते ऊर्ध्वग्रीवत्वादिस्वपर्यायैः सद्भावेनार्पितः कुम्भः 'कुम्भ' इति भण्यते । इदन्त्व - कुम्भत्वाद्यवच्छेदेन स्वशिष्य निष्ठस्वपर्यायावच्छिन्नकुम्भत्वसत्ताबोधप्रयोजकप्रकृतवाक्येच्छारूपगुर्वेर्षणया 'अयमूर्ध्वग्रीवत्वादिना कुम्भ एव' 'कुम्भः ऊर्ध्वग्रीवत्वादिना कुम्भ एवेत्यादिवाक्यप्रयोगात् । इत्थमेवोदेश्यसावधारणप्रतीतेर्वादान्तरोत्थापितविपरीताव्यवहार दो प्रकार का होता है, शब्दाभिलाप रूप व्यवहार संकेतविशेष के स्मरण से नियन्त्रित अर्थ मात्रवाचकता स्वभाववाले शब्द से होता है, इसलिए शब्दगत तथाविध अर्थ वाचकता स्वभाव ही " शब्दाभिलापरूपव्यवहार" का नियामक बनता है, अतः वह व्यवहार स्वविषय में जो वास्तविकता रहती है उस का नियमन नहीं कर सकता है । आशय यह है कि संकेत ग्रहणकाल में 'घट शब्द से घटरूप अर्थ बोधित होता है, ' इसतरह का संकेतज्ञान होता है । इस संकेतज्ञान का अनुसन्धान करके ही प्रयोगकाल में प्रयोक्ता घट पद का प्रयोग करता है । संकेत तो सामान्यरूप से घट में होता है, इसलिए नाम घटादि में भी घटशब्दप्रयोगात्मक शब्दाभिलापरूप व्यवहार होता है, परन्तु उस घट का क्या स्वरूप है - इस का निर्णय शब्दप्रयोगरूप व्यवहार नहीं कर सकता है, इसलिए व्यवहारविषयीभूत नाम घटादि में घटत्व की सिद्धि व्यवहारमात्र से नहीं हो सकती है । जलाहरणादिरूप प्रयोजन यदि नामघटादि से सिद्ध होता, तब तो उस में घटत्व मान लेते, वह तो नामघटादि से होता नहीं है, किन्तु भावघट से ही होता है, अतः भावघट में ही घटत्व मानना युक्त है । नामघटादि में व्यवहारमात्र से घटत्व मानना युक्त नहीं है । जलाहरणादि के लिए नामघटादि में प्रवृत्ति होती नहीं है, इसलिए प्रवृत्ति रूप व्यवहार जो घटत्व का साधक है उस की असिद्धि होने के कारण भी नामघटादि में घटत्व सिद्ध नहीं हो सकता । यदि यह प्रश्न हो - ' शब्दार्थत्व जैसे भावघट में रहता है, वैसे ही नामघटादि में भी रहता है । इस स्थिति में भाववट में घटत्व है, नामघटादि में घटत्व नहीं है, इस का नियामक क्या ? ।' - इस का समाधान यही है कि भावघट में घटत्व का नियामक जलाहरणादि अर्थ क्रिया ही है, भावघट से ही जलाहरणादि अर्थ क्रिया होती है, नाम घटादि से तो जलाहरणादिरूप अर्थ क्रिया नहीं होती है, इसलिए उन में घटत्व का अभाव है । इस प्रकार अर्थ क्रिया को ही नियामक समझना चाहिए ।
( अत एव ) "भावघट" में तथा नामघटादि में घटशब्दार्थत्व यद्यपि समानरूप से रहता है, तथापि भावघट में घटशब्दार्थत्व अनुपचरित है=मुख्य है, क्योंकि भावघट
अर्थक्रियाकारत्व रहता है । नामघटादि में जलाहरणादिरूप अर्थ क्रियाकारित्व नहीं रहता है, इसलिए उस में घटशब्दार्थत्व उपचरित अर्थात् आरोपित है, अतः नामादि घटों में घटत्व साम्प्रतनय की दृष्टि से नहीं रहता है, "ऋजुसूत्र" की दृष्टि से तो नाम घटादि में घटत्व रहता है, यही ऋजुसूत्र और साम्प्रत में भेद है । ऐसा प्राचीन आचार्यों का अभिप्राय है ।