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नयरहस्ये शब्दनयः
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"विशेषिततर" शब्द में जो "तर" प्रत्यय का ग्रहण है, उसी की महिमा से “समभिरूढ" और "एवंभूत” में अतिव्याप्ति का वारण हो जाता है ।
[ साम्प्रत नय में विशेषिततर अर्थ ग्राहित्व की उपपत्ति ]
आशय यह है कि ऋजुसूत्र से अभिमत भावरूप अर्थ के ग्राही साम्प्रत आदि तीन नय हैं। जो भाव अतीत, अनागत और परकीय न हो उन्हीं भावों में से “विशेषितर भाव" का ग्राही "साम्प्रतनय" होता है, परन्तु साम्प्रत को वह भाव, 'लिंग, वचन' आदि के भेद से भिन्न भिन्न अभिमत है, इसलिए “विशेषिततरार्थग्राही" साम्प्रत नय हुआ । एवंभूत नय विशेषिततर ऋजुसूत्राभिमत अर्थ का ग्राही नहीं है किन्तु 'विशेषिततम' अर्थ का ग्राही है । इस हेतु से "साम्प्रतनय" के लक्षण की अतिव्याप्ति समभिरूढ में नहीं होती है । "एवंभूतनय" तो " समभिरूढ" से अभिमत जो “विशेषिततम" अर्थ उस की अपेक्षा से भी अतिशयित विशेषिततम अर्थ का ग्राही है। अतः विशेषिततरार्थग्राहित्व जो साम्प्रत में है वह एवंभूत में नहीं है, इसलिए अतिव्याप्ति का सम्भव नहीं है । आशय यह है कि ऋजुसूत्र ने “तटः, तटी, तटम्" यहाँ लिंग होने पर भी " तट" स्वरूप भाव को एक ही माना है, परन्तु "साम्प्रतनय" लिंग भेद होने के कारण तटरूप भाव को भिन्न-भिन्न मानता है, यही ऋजुसूत्राभिमत अर्थ की अपेक्षा से साम्प्रताभिमत अर्थ में विशेषिततरत्व है । एवं साम्प्रतनय 'घटः, कुटः कुम्भः' यहाँ समान लिंग और समान वचन होने से तीनों शब्दों का वाच्य अर्थ एक ही मानता है किन्तु समभिरूढ यहाँ एक अर्थ नहीं मानता है किन्तु विशिष्टचेष्टायुक्त अर्थ को ही "घट" शब्द का वाच्य मानता है, क्योंकि “घट् चेष्टायाम्" इस धातु से 'घट' शब्द की सिद्धि होती है, अतः घटशब्दवाच्य अर्थ में विशिष्टचेष्टावत्त्वरूप प्रवृत्तिनिमित्त रहता है । "कुट" शब्द "कुट कौटिल्ये" धातु से बनता है, इसलिए कौटिल्यरूप प्रवृत्तिनिमित्त, कुटशब्दवाच्य अर्थ में रहता है । “उम्भ पूर्णे" इस धातु से 'कु' उपपद लगाने पर “कुम्भ" शब्द बनता है, अतः कुत्सितपूरण योगित्व रूप प्रवृत्तिनिमित्त कुम्भ शब्द वाच्य अर्थ में रहता है । इसतरह समभिरूढ को प्रवृत्तिनिमित्त के भेद से 'घट, कुट, कुम्भ" इन तीनों शब्दों के वाच्य अर्थ भिन्न भिन्न अभिप्रेत हैं । तथा समभिरूढ के मत से “घट, कुट, कुम्भ" ये तीनों शब्द पर्यायवाची नहीं माने जाते हैं, अतः साम्प्रत की अपेक्षा से भी मुक्ष्म अर्थ का ग्राही समभिरूढ माना जाता है, यही समभिरूढ के मान्य अर्थ में "विशेषिततमत्व " है । एवंभूत नय समभिरूढ से मान्य अर्थ की अपेक्षा से भी सूक्ष्म अर्थ का ग्राही है, क्योंकि समभिरूढ विशिष्ट चेष्टायुक्त घट को, जो गृह कोणादि में रखा हुआ है- उस को घट शब्द का वाच्य मानता है, परन्तु एवम्भूतनय उस को घट शब्द वाच्य नहीं मानता है, किन्तु किसी नारी के मस्तक पर रखा हुआ जलाहरणादि क्रिया के लिए चेष्टमान घट को ही घटशब्द वाच्य मानता है । अतः "समभिरूढ" की अपेक्षा से भी अतिशयित “विशेषिततम" अर्थ को अर्थात् संकुचित अर्थ को "एवंभूत" मानता है, अतः विशेषिततरार्थग्राहित्वरूप साम्प्रत का लक्षण उस में नहीं जाता है, इसलिए " एवम्भूतनय" में भी "साम्प्रतनय" के लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं होती है, यह समझना चाहिए ।