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नयरहस्ये व्यवहारनयः
प्रति व्यवहारविषयता व्याप्य नहीं बनती है, यह कथन व्यवहाररूप दुर्नय की दृष्टि से संगत है, जिस दुर्नय से "चार्वाक दर्शन" की प्रवृत्ति हुई है । चार्वाक दर्शन में केवल प्रत्यक्षप्रमाण ही मान्य है, अनुमान और आगम प्रमाण उस को मान्य नहीं है, इसलिए प्रत्यक्षविषयतामात्र के प्रति व्यवहारविषयता में व्याप्यता उस के मत से सिद्ध हो भी सकती है । जैनदर्शन को मान्य जो व्यवहारनय है, उस के अनुसार प्रत्यक्षविषयता मात्र के प्रति व्यवहारविषयता में व्याप्यत्व नहीं है क्योंकि जैनदर्शन अनमान और अ इत्यादि प्रमालों को भी मानता है इसलिए अनुमान और आगम प्रमाणजन्यबोधविषयता के साथ भी व्यवहारविषयता का सम्बन्ध जैनदर्शन को मान्य है, क्योंकि प्रत्यक्ष की तरह अनुमान और आगम से सिद्ध वस्तु का भी जैनदर्शन के मत में व्यवहार होता है। भ्रमर में पञ्चवर्णत्व आगमसिद्ध है, उस में भी व्यवहारविषयता अवश्य रहेगी तो “पञ्चवर्णा भ्रमरः” यह वाक्य भी व्यवहारनयानुरोधी क्यों न होगा ? यह पूर्वोक्त शंका खडी ही रहती है ।
[पंचवर्णवाला भ्रमर' इस वाक्य में व्यावहारिकत्व का व्यावर्त्तन-समाधान]
समाधानः-(सत्यम्) ननु इत्यादि ग्रन्थ से जो पूर्वपक्षी ने कहा है उस का कुछ अंश में स्वीकार सिद्धान्ति को भी है, इस वस्तु को सूचित करने के लिए "सत्यम्” पद का प्रयोग किया है । पूर्वोक्त शंका के समाधान में सिद्धान्ति का कहना है कि कुछ ऐसे भी पदार्थ हैं जो प्रत्यक्ष से दृश्यमान नहीं होते, किंत आगमबोध्य होने से व्यवहारविष होते हैं, ऐसे पदार्थों में नैश्चयिकविषयता भी रहती है और व्यावहारिकविषयता भी रहती है । जैसे, 'आत्मा में रूप नहीं है', यह आगम से ही निश्चित होता है । आत्मा का चाक्षुष प्रत्यक्ष न होने के कारण आत्मविशेष्यक रूपाभावप्रकारक प्रत्यक्ष नहीं होता है, इसलिए आत्मा में जो अरूपवत्ता है वह प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, तो भी आगमजन्य निश्चयविषयता और व्यावहारिक विषयता दोनों ही आत्मगत अरूपवत्ता में है। इसलिए "आत्मा न रूपवाम्” इस वाक्य में व्यावहारिकत्व उपपन्न होता है । परन्तु यह बात सार्वत्रिक नहीं है, किन्तु कहीं कहीं पर ही मानी जाती है । इसलिए "कृष्णो भ्रमरः" इसतरह के लोकप्रसिद्ध अर्थ के अनुवादक वाक्यस्थल में व्यावहारिकत्व आता है, क्योंकि लोक में प्रसिद्ध यही है कि "भ्रमर कृष्ण होता है" इस वाक्य से 'कृष्णरूपवाला भ्रमर' ऐसा बोध होता है । इस बोध में भ्रमर विशेष्यरूप से भासित होता है और कृष्णरूप विशेषण या प्रकाररूप से भासित होता है, इसलिए भ्रमरनिष्ठ विशेष्यतारूपविषयता निरूपतप्रकारतारूप विषयता कृष्णरूप में रहती है, जो कृष्णरूपत्वावच्छिन्ना या कृष्णत्वावच्छिन्ना है, इसलिए "कृष्णो भ्रमरः" इसवाक्य में व्यावहारिकत्व आने में कोई बाधा नहीं है क्योंकि ऐसा नियम है-यत्किञ्चिन्निष्ठविवयतानिरूपित व्यावहारिकविषयतानिरूपकबोध जिस वाक्य से होता है, वह वाक्य व्यावहारिक माना जाता है । "कृष्णो भ्रमरः” एतत् वाक्यजन्य बोध में भ्रमरनिष्ठविषयतानिरूपित कृष्णवर्णनिष्ठा जो प्रकारतारूप विषयता है, वह व्यावहारिकविषयता है । "पञ्चवर्णो भ्रमरः" इस वाक्य से भ्रमर कृष्णरक्तादि पञ्चरूपवाला है ऐसा बोध होता है, इस बोध में भ्रमर विशेष्यरूप से और