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૨રૂર
उपा. यशोविजयरचिते
प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यवहारनय को लोकसम माना गया है"-परन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि लोकबाधित अर्थ का बोधक होने से “पञ्चवर्णी भ्रमरः" यह वाक्य यदि व्यवहारानुकूल नहीं माना जाय तो "आत्मा न रूपवान्" यह वाक्य भी अव्यावहारिक बन जायेगा, क्योंकि लोक तो अनादिकाल से आत्मा और शरीर में अभेदाध्यवसायवान् ही है, इसीलिए “अहं गौरः", "अहं श्यामः", "अहं कृशः", "अहं स्थूल:' इत्यादि लोक व्यवहार से आत्मा में “गौरत्व, श्यामत्व, कृशत्व, स्थूलत्व' को ही मानते हैं। अतः लोकप्रमाण से आत्मा में गौरत्वादि धर्म ही सिद्ध हैं और अरूपवत्ता बाधित है। इस कारण से लोकबाधितार्थबोधकत्व “आत्मा न रूपवान्" इस वाक्य में भी प्राप्त होता है तब तो यह वाक्य भी व्यवहारनयानुकूल न होने की आपत्ति आयेगी।
यदि यह कहा जाय कि-"आत्मा न रूपवान्" यह वाक्य ऐसे ही लोगों में बाधितार्थ है, जिन लोगों को शरीर में आत्मत्व का भ्रम है, अथवा शरीर में आत्मा का अभेदाध्यवसाय है, ये दोनों प्रकार के लोग होते हैं। इन लोगों की दृष्टि से आत्मा में अरूपवत्ता का बाध भले हो, तथापि शरीर में आत्मत्व भ्रम, या शरीर में आत्मा का अभेदाध्यवसाय जिन को नहीं है, ऐसे शास्त्रीय व्यत्पत्तियक्त व्यक्ति को शरीर में आत्मत्वभ्रम अथवा अभेदाध्यवसाय नहीं होता, अतः वे लोग अभ्रान्त हैं । इसतरह के अभ्रान्तलोग में, आत्मा में अरूपवत्ता का बाध नहीं होता, इसलिए "आत्मा न रूपवान' इस वाक्य में अभ्रान्तलोकअबाधितार्थबोधकत्व रहता है और वही इस वाक्य में व्यावहारिकत्व का प्रयोजक है। अतः “आत्मा न रूपवान्” इस वाक्य में अव्यावहारिकत्व का प्रसंग उपस्थित करना युक्त नहीं है।"-तो इस का समाधान यह है कि “पञ्चवर्णो भ्रमरः” इस वाक्य का अर्थ भी जिन को 'भ्रमर में केवल कृष्णरूप रहता है' ऐसा भ्रम है, ऐसे भ्रान्त लोकों से ही बाधित है । जिन को शास्त्रीय व्युत्पत्ति ज्ञात है, ऐसे लोक तो भ्रमर में कृष्ण रक्तादि पांच प्रकार के वर्णों को मानते ही हैं, और उन का वैसा मानना भ्रम नहीं है, अतः वे अभ्रान्त है । इसतरह अभ्रान्तलोक अबाधितार्थबोधकत्व रूप व्यावहारिकत्व का प्रयोजक, “पञ्चवर्णो भ्रमरः” इस वाक्य में रहता है, तब यह वाक्य भी व्यवहारनयानुरोधी क्यों न होगा ? यह आपत्ति खडी ही रहती है ।
यदि ऐसा कहे' कि-"प्रत्यक्षविषयता की अपेक्षा से व्यवहारविषयता व्याप्य है, क्योंकि जहाँ जहाँ प्रत्यक्षविषयता है, वहाँ वहाँ ही व्यवहारविषयता होती है ऐसी प्रतीति होती है। किंतु जहाँ जहाँ आगमादिप्रमाणजन्यबोधविषयता है वहाँ ही व्यवहारविषयता हो इसतरह की प्रतीति नहीं होती है। इसलिए व्यवहारविषयता आगमादिप्रमाणजन्यबोधविषयता की अपेक्षा से नियत नहीं है, किन्तु प्रत्यक्षविषयता की ही नियत है। अतः भ्रमर में कृष्ण, रक्तादि पांच प्रकार के वर्षों का बोध आगम से भले होता हो, तो भी भ्रमरगत पञ्चवों में प्रत्यक्षविषयतारूप व्यापक न होने के कारण व्यवहारविषयतारूप व्याप्य नहीं होगा । व्यापक की निवृत्ति से व्याप्य की निवृत्ति होना सर्वत्र प्रसिद्ध ही है । अतः “पञ्चवर्णो भ्रमरः" यह वाक्य व्यवहारनयानुरोधी कसे बन सकता है ?'परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि आपने जो बताया है कि प्रत्यक्षविषयता के प्रति ही व्यवहारविषयता व्याप्य बनती है और आगमादि प्रमाणजन्य बोधषिषयता के