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उपा. यशोविजयरचिते ___ अथाऽसतोऽभावाश्रयत्वमभावप्रतियोगित्वं च भावधर्मरूपं न सम्भवतीति न तन्निषेधो युक्तः । 'शशशृङ्गमस्ति न वे'ति पृच्छतो धर्मिवचनव्याघातेनैव निग्रहात्तत्रान्यतराभिधानेनोभयनिषेधेन तूष्णीम्भावेन वा पराजयाऽभावादिति चेत् ? न, यथा परेषां विशिष्टस्यातिरिक्तस्याऽसत्त्वेऽपि तत्राभावाश्रयत्वस्याभावप्रतियोगित्वस्य वा व्यवहारस्तथास्माकमपि सदुपरागेणासत्यपि विशिष्टे वैज्ञानिकसम्बन्धविशेषरूपतद्व्यवहारोपपत्तेः । 'शशशृङमस्ति न वेति जिज्ञासुप्रश्ने 'शशश्रङ्ग नास्ती'त्येवाभिधातुयुक्तत्वात् , आनुपूर्वीभेदादुद्देश्यसिद्धेः । इत्थमेव 'पीतः शलो नास्ती'त्यादेरपि प्रामाण्योपपत्तेः । काल्पनिकस्याप्यर्थस्य परप्रतिबोधार्थतया कल्पिताहरणादिवद्वयवहारतः प्रामाण्यात् , इत्थमेव नयाथरुचिविशेषापादनाय तत्र तत्र नयस्थले दर्शनान्तरीयपक्षग्रहस्य तान्त्रिकैरिष्टत्वादिति दिक् । निश्चय को प्रतिबन्धक, नहीं माना गया है, किन्तु इन वाक्यों से उत्पद्यमान ज्ञान में विषय का बाध होने से ये ज्ञान अप्रमाण माने जाएँगे, यह बात अलग है । श्रीहर्ष के कथन से “गधे का सींग असत् है" इस वाक्य से स्वारसिक यथाश्रतार्थ बोध जो ऋजुसूत्र नय को अभिमत है, उस को समर्थन मिलता है क्योंकि यह वाक्य, अर्थ के अत्यन्त असत् होने पर भी यथाश्रतार्थ बोध अवश्य करेगा, किन्तु निर्धर्मक अत्यन्त असत "गधे के सींग' में असत्त्वरूप धर्म के सम्बन्ध का बाध होने के कारण अप्रमाणरूप होगा. यह बात अलग है।
[असत् में भावधर्म सम्भव न होने से निषेध अनुपपत्ति-शंका ] (अथाऽसतो) यह शङ्का उठ सकती है कि-'गधे का सींग असत् है' इस वाक्य से गर्दभ सींग विशेष्यक असत्वप्रकारक बोध यदि आप को इष्ट है, तो गर्दभसींग का निषेध ही आप करना चाहते हैं, अब देखिये कि खरश्रृङ्ग का निषेध दो प्रकार से आप के मत में सम्भव होगा। (१) उस में एक प्रकार का यह है कि उक्त बोध में असत्त्व शब्द का सत्त्वाभाव अर्थ मानकर गर्दभसींग में सत्त्वाभावाश्रयत्व की प्रतीति करनी होगी । आश्रयत्व किसी भावपदार्थ का ही धर्मरूप होता है । गर्दभसींग तो अत्यन्त असत् है, उस में सत्त्वाभावाश्रयत्व सम्भवित नहीं है क्योंकि असत् किसी का आश्रय नहीं बनता है, तब आश्रयत्व भी उस में कैसे सम्भव होगा ? इसलिए गर्दभसींग में सत्वाभावाश्रयत्वरूप गर्दभ सींग का निषेध युक्तिसंगत नहीं लगता है । (२) यदि अभावप्रतियोगित्वरूप निषेध गर्दभसींग में माना जाय, जी निषेध करने का दूसरा प्रकार है, तो वह भी संगत नहीं है, क्योंकि अभावप्रतियोगित्व भी वस्तु का ही धर्म है। आचार्य "उदयन" ने भी "अभावविरहात्मत्वं वस्तुनः प्रतियोगिता” इस वाक्य से प्रतियोगिता का लक्षण बताते हुए, प्रतियोगिता को वस्तु का धर्म बताया है । गर्दभसींग तो तुच्छ होने से अवस्तु है, उस का धर्म प्रतियोगित्व या अभावप्रतियोगित्व नहीं हो सकता है, इसलिए 'गर्दभसींग नहीं है' । इस वाक्य से जो यथाश्रुतार्थ बोध ऋजुत्र को अभिमत है वह ठीक नहीं है ।