Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 163
________________ १४६ उपा. यशोविजयरचिते विशिष्ट होने पर भी वह चैत्र ही है किन्तु चैत्र से अतिरिक्त नहीं है । इसतरह शुद्ध से अतिरिक्त विशिष्ट उन के मत में असत् रूप से मान्य है, तो भी कुण्डलविशिष्ट चैत्र में मैत्रत्व तो नहीं रहता है, इसलिए “मैत्रत्वाभाववान कुण्डलविशिष्टः चैत्रः" यह प्रतीति होती है । इस प्रतीति के अनुसार मैत्रत्वाभावाश्रयता का व्यवहार, विशिष्ट चैत्र, जो असत् है, उस में वे लोग करते हैं। एव 'इस प्रदेश में कंडलविशिष्ट चैत्र नहीं है-इस तरह की प्रतीति वे लोग प्रमाण मानते हैं, इस प्रतीति से "एतद्देशवृत्तिअभावप्रतियोगित्व' असत्-विशिष्ट चत्र में भासित होता हैं, इसलिए कुण्डलविशिष्ट चत्र 'एतद्देशवृत्तिअभावप्रतियोगितावान्" ऐसा व्यवहार उन के मत में होता है । वैसे ही हमारे मत में भी असत् शशशृङ्गरूप विशिष्ट में अभावाश्रयत्व और अभावप्रतियोगित्वरूप स वस्तु का वैज्ञानिक सम्बन्धरूप उपराग मानकर “शशशृङ्गमसत्" "खरशृङ्गमसत्" इत्यादि व्यवहारों का उपपादन हो सकता है। आशय यह है कि यद्यपि शशशङ्गादि में असत्त्व का या अभावाश्रयत्व का और अभावप्रतियोगित्व का लोकप्रसिद्ध स्वरूपआदिसम्बन्ध होना सम्भवित नहीं है, तो भी “शशशङ्गमसत्" "शशशृङ्गसत्त्वाभाववत्""शशशृङ्गमभावप्रतियोगि" इत्यादि विकल्पात्मक ज्ञान होते हैं, तद्विषयता शशशृङ्ग और असत्त्व आदि में अवश्य है, इसलिए एकज्ञानविषयता शशशृङ्ग और असत्त्वादि में अवश्य रहती है, अतः “एक ज्ञान विषयता" सम्बंध से या "स्वविषयक ज्ञान विषयता' सम्बन्ध से असत्त्वादि का शशशृङ्गादि में रहना सम्भव होने से "शशशृङ्गमसत्' इत्यादि व्यवहार ऋजुसूत्र के मत में भी उपपन्न होने में कोई बाधक नहीं है । यदि यह कहा जाय कि-"असत् विशिष्ट में वैज्ञानिक संबन्ध की कल्पना कर के "शशशङ्गमसत्" इस व्यवहार का उपपादन करने की अपेक्षा "शशवृत्ति अभावप्रतियोगिशृङ्गम्" ऐसा अथ मानकर "शशशङ्गमसत्" इस व्यवहार का उपपादन करने में लाघव है, क्योंकि इस अर्थ में वैज्ञानिक संबन्ध की कल्पना नहीं करनी पडती है, तब वैज्ञानिक संबन्ध कल्पनारूप गौरव से युक्तरीति का आश्रयण करके उक्त व्यवहार का उपपादन करना युक्त नहीं है।'-परंतु यह कहना भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि "शशशङमस्ति न वा” इसतरह का प्रश्न जिज्ञासु व्यक्ति करता है । "शशशृङ्ग में अस्तित्व है या नास्तित्व है" यही जानने की इच्छा प्रश्नकर्ता को है, इस स्थिति में उत्तरदाता को इन्हीं दोनों में से किसी एक का विधान शशशृङ्ग में करना चाहिए, अतः उस प्रश्न के उत्तर में “शशशृङ्ग नास्ति' ऐसा ही कहना युक्त है क्योंकि ऐसा कहने पर ही नास्तित्व का विधान सिद्ध होता है । यदि "शृङ्ग शशवृत्तिअभावप्रतियोगी है" ऐसा उत्तर दिया जाय तो वह संबद्ध न होगा। "शृङ्ग शशवृत्तिअभावप्रतियोगी है या नहीं ?" इसतरह का प्रश्न होता, तब तो वह उत्तर संगत होता, परन्तु प्रश्न तो शशशङ्ग में अस्तित्व-नास्तित्व विषयक है इसलिए 'शशशृङ्ग नहीं है' ऐसा ही उत्तर देना उचित है । इस उत्तर का उपपादन करने के लिए वैज्ञानिक संबन्ध को मानना भी आवश्यक है, क्योंकि उस को माने बिना इस उत्तर का उपपादन नहीं हो सकता है, अतः वैज्ञानिक संबन्ध कल्पनारूप गौरव यहाँ दोषरूप नहीं है, क्योंकि वह फलमुख गौरव है। फलमुख गौरव का शास्त्रकारों ने स्वीकार किया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254