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नय रहस्ये ऋजुसूत्रनयः न चायं वृथाभिमानः, स्वदेशकालयोरेव सत्ताविश्रामात् , यथा कथञ्चित् सम्बन्धस्य सत्ताव्यवहारांगत्वेऽतिप्रसङ्गात् । न च देशकालयोः सत्त्वं विहायान्यदतिरिक्त सत्त्वमस्ति यद्योगिता प्रकृते स्यात् , असत्ताबोधोऽपि चास्ति तत्र सत्ताक्षेपी, सत्ताननुवेधात् , अन्यथा खरशृङ्गादीनामसत्ता न सिद्धथेत । 'उद्देश्यासिद्धया क्व विधेयाऽसत्ते'ति चेत् ? कथं तर्हि खरशृङ्गमसदिति व्यवहारः ! 'खरवृत्त्यभावप्रतियोगिशृङ्गमिति तदर्थ' इति चेत् ? न, एतस्यार्थस्याऽस्वारसिकत्वात् । 'तवाप्ययोग्यतानहीं है और अतीत, अनागत-परकीय अर्थ से तो व्यवहार होता ही नहीं है । इसीतरह अतीत, अनागत और परकीय अर्थ वाचक शब्द भी अतीत, अनागत और परकीय ही होंगे, जो व्यवहार के अंग नहीं बन सकते हैं । एवम् अतीत, अनागत और परकीय अर्थ विषयक ज्ञान को भी व्यवहारनय कसे मानेगा, क्योंकि तादृशज्ञान के विषयभूत अर्थ अतीत, अनागत और परकीय ही होंगे, जो व्यवहार के साधन नहीं हो सकते हैं, तब उस का ज्ञान भी व्यवहारसाधक कैसे होगा ? तथापि यदि अतीत, अनागत अर्थ, ताशार्थ वाचक शब्द और ताशार्थ विषयकज्ञान को "व्यवहार" मानेगा तो वह “व्यवहारनय” की मान्यता विचारपूर्वक नहीं होगी, किंतु भ्रान्त मानी जायगी, क्योंकि सूक्ष्मविचार करने पर अतीत, अनागत-परकीय अर्थ और तथाविध अर्थवाचक शब्द तथा ताशार्थ विषयकज्ञान युक्ति से घटमान नहीं होता है, इसलिए वे माने जा सकते नहीं हैं, यही ऋजुसूत्र में व्यवहार की अपेक्षा से अतिशय है, ऐसा ऋजुसूत्र का अभिमान यानी गूढ आशय है।
[ ऋजुसूत्र का अभिमान मिथ्या नहीं है ] (न चाय) यह कहना ठीक नहीं कि-'ऋजुसूत्र का यह अभिमान वृथा है क्योंकि ऋजुसूत्र के उक्त अभिमान से व्यवहारनय अपने मन्तव्यों का त्याग नहीं करेगा, तब इस अभिमान का कोई फल नहीं रहता है।'-यह कहना इसलिये ठीक नहीं है, कि स्वदेश और स्वकाल में ही वस्तु में सत्ता सिद्ध होती है । अतीतानागतकालीन वस्तु से कोई व्यवहार नहीं होता । स्वदेश और स्वकाल में स्थित वस्तु से ही व्यवहार देखने में आता है, जिस से वस्तु की सत्ता स्वदेशकाल में ही सिद्ध होती है। अतः अर्थ, अभिधान और ज्ञान की सत्ता अन्यकाल में सिद्ध न होने के कारण ऋजुसूत्र का अभिमान निष्फल नहीं है, क्योंकि अपनी मान्यता का समर्थन रूप फल सिद्ध होता है, व्यवहारनय भले ही ऋजुसूत्र के अनुसार अपनी मान्यता न रखे, माने या न माने, उस से कोई निस्बत नहीं है । यदि यह पूछा जाय कि-'अन्यदेश और अन्यकाल वृत्ति वस्तु का भी ज्ञान होता हैं, इसलिये वैज्ञानिक सम्बन्ध से ही अतीतानागत वस्तु में सत्ता का व्यवहार क्यों नहीं होगा ?'- तो यह पूछना भी युक्त नहीं, क्योंकि वैज्ञानिक सम्बन्ध को यदि सत्ताव्यवहार का कारण माना जायगा, तो खरगोश, अश्व आदि श्रृङ्गरहित प्राणीओं में भी श्रृङ्ग का वैज्ञानिक सम्बन्ध मानकर “यह खरगोश श्रृंग है, यह अश्व श्रृङ्ग है" इस तरह के सत्ताव्यवहार का अतिप्रसङ्ग हो जायगा । 'अतीत, अनागतादि वस्तुओं में किसी अन्यप्रकार की