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उपा. यशोविजयरचिते
"सतां साम्प्रतानामभिधानपरिज्ञानमृजुसूत्र' इति (सूत्र-३५) तत्त्वार्थभाप्यम् । व्यवहारातिशायित्व लक्षणमभिप्रेत्य तदतिशयप्रतिपादनार्थमेतदुक्तम् ॥
"व्यवहारो हि सामान्य व्यवहारानङ्गत्वान्न सहते, कथं तयर्थमपि परकीयमतीतमनागतं चाप्यभिधानमपि तथाविधार्थवाचकम् , ज्ञानमपि च तथाविधार्थविषयमविचार्य सहेत" ? ! इत्यस्याभिमानः ॥
[ तत्त्वार्थभाप्य के अनुसार ऋजुसूत्र नय ] (सतां साम्प्रत) ग्रन्थकार "ऋजुसूत्र" के स्वकथित लक्षण के समर्थन में "तत्त्वार्थभाष्य" का अंश यहाँ उदधृत करते हैं। भाष्य में सत् शब्द "खपुष्पादि" असत्पदार्थों की व्यावृत्ति के लिए निर्दिष्ट है, सत्पदार्थ भी साम्प्रत अर्थात् वर्तमान ही "ऋजुसूत्र" को सम्मत है । तथा अर्थों का अभिधान अर्थात् वाचक शब्द भी वर्तमान ही ऋजुसूत्र को मान्य है। अतीत और अनागत शब्द को वह अर्थवाचक नहीं मानता है क्योंकि अतीत और अनागत शब्दों से किसी अर्थ का अभिधान नहीं होता । तथा, सत् और वर्तमान अर्थो का परिज्ञान अर्थात् अवबोध भी वर्तमान ही मान्य करना चाहता है । अतीत और आगामि परिज्ञान को यह नहीं चाहता । क्योंकि सत्-वर्तमान अर्थ विषयक ज्ञान का अतीत और अनागत स्वभाव नहीं हो सकता । इसलिए 'अर्थ और तवाचक शब्द तथा तद्विषयकज्ञान इन तीनों को स्वकीय और वर्तमान ही जो मानता हो ऐसा अध्यवसायविशेष' ही ऋजुसूत्र का लक्षण उक्तभाष्य से फलित होता है । ग्रन्थकार के लक्षण में "प्रत्युत्पन्नग्राही" पद से भी यही अर्थ निकलता है । ग्रन्थकार का यह कहना है कि व्यवहारनय की अपेक्षा से "ऋजुसूत्र" में कुछ अतिशय है अर्थात् विशेष है। इसलिए व्यवहारातिशायित्व ही "ऋजुसूत्र" का लक्षण है । इस अतिशय का प्रतिपादन करने के लिए इस भाष्य की प्रवृत्ति हुई है । “व्यवहारनय” अतीत अनागत और परकीय अर्थ को भी मानता है तथा अतीत अनागत और परकीय अर्थवाचक शब्द को भी मानता है । तथा, अर्थविषयकज्ञान भी अतीत अनागत और परकीय होने का मानता है । "ऋजुसूत्र" ऐसे किसी भी अर्थ, शब्द या ज्ञान को स्वीकार नहीं करता जो अतात अनागत या परकीय हो, किन्तु वर्तमान और स्वकीय हो ऐसे ही शब्द, अर्थ तथा ज्ञान को मानता है, यही व्यवहार की अपेक्षा से ऋजुसूत्र में अतिशय या विशेष है।
[ ऋजुसूत्र का व्यवहारनयवादी के प्रति प्रश्नार्थ ] (व्यवहारो) ऋजुसूत्र में व्यवहारातिशायित्व के प्रतिपादन में ऋजुसूत्र का आशय यह है कि “व्यवहार" सामान्य को नहीं मानता है । इस का कारण यह है कि जलाहरणादि व्यवहार घटत्वादि सामान्य से नहीं होता किन्तु घटादिरूप व्यक्तिविशेष से ही होता है, इसलिए व्यवहार का साधन व्यक्तिविशेष ही है, सामान्य नहीं है। जिस से व्यवहार न हो सकता हो ऐसी वस्तु को मानने में कोई प्रयोजन नहीं है । इस अभिप्राय से यदि व्यवहारनय सामान्य को नहीं मानता है तो, परकीय, अतीत और अनागत अर्थ को भी वह कैसे मानेगा क्योंकि परकीय अर्थ भी स्वकीय व्यवहार का साधन नहीं