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नयरहस्ये ऋजुसूत्रनयः
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यदि यह शंका की जाय कि-"नैगमादिनय' यद्यपि अतीत, अनागत और वर्तमान रूप कालत्रयवर्ती वस्तु को मानते हैं, इसलिए वर्तमानकालोन प्रत्युत्पन्नवस्तु के ग्राहक वे भी है, तो उन नयों में भी ऋजसूत्र का लक्षण चला जायेगा इसलिए अतिव्याप्तिदोष उपस्थित होता है।" इस शंका के समाधान के लिए परिकृत अर्थ उपाध्यायजी बताते हैं कि "भावत्व में अतीतानागतकाल सम्बन्धाभाव व्याप्यत्व का जो स्वीकार, वही प्रत्युत्पन्नग्राहित्व" यहाँ विवक्षित है । ऋजुसूत्र की दृष्टि से जहाँ जहां भावत्व है वहाँ वहाँ अतीत-अनागतकाल का अभाव भी रहता है, इसलिए अतीतानागतकालसम्बन्धाभाव भावत्व की अपेक्षा से व्यापक बनेगा और भावत्व अतीतानागतकालसम्बन्धाभाव की अपेक्षा से व्याप्य बनेगा । ऋजुसूत्राभिमत भाव वस्तु में वर्तमानकाल का ही सम्बन्ध रहता है, अतीत और और अनागतकाल का सम्बन्ध नहीं रहता है, इस हेतु से यह व्याप्यव्यापकभाव बनने में कोई बाधा नहीं है । नैगमादि नयों से स्वीकृत भाववस्तु में जैसे वर्तमानकाल का सम्बन्ध रहता है, वैसे ही अतीत और अनागत काल का भी सम्बन्ध रहता है, क्योंकि नगमादिनय जसे वर्तमानकालीन भाव को मानते हैं वैसे ही अतीतकालीन और अनागतकालीन भाव को भी मानते हैं, इसलिए नैगमादि अभ्युगत भाववस्तु में अतीत और अनागतकाल के सम्बन्ध का अभाव नहीं रहता, अतः भावत्व में अतीतानागतकालसम्बन्धाभावव्याप्यत्व को वे नय नहीं मानते हैं । अतः परिष्कृत प्रत्युत्पन्नग्राहित्व नैगमादिनयों में नहीं रहता। इसलिए अतिव्याप्ति दोष नहीं है।
यदि यह कहा जाय कि-'अतीतानागत-कालवर्तीभाव में भी भावत्व रहता है, अतः वर्तमान क्षणसम्बन्ध की तरह उसमें अतीत और अनागतक्षण का सम्बन्ध भी रहेगा। अतः भावत्व में अतीतानागतकालसम्बन्धाभावव्याप्यत्व मानना ठीक नहीं है'-परन्तु यह कथन भी सङ्गत नहीं है, क्योंकि अतीतत्व और अनागतत्व का परस्पर विरोध है । जिस भाव में अतीतत्व रहता है उस भाव में अनागतत्व नहीं रहता है, इसलिए भावत्व में अतीतानागत कालसम्बन्धाभावव्याप्यत्व मानने में कोई बाधक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि"अतीतत्व और अनतीतत्व का ही परस्पर विरोध है, क्योंकि अतीतत्ववत्ताबद्धि के प्रति अतीतत्वाभाववत्ताबुद्धि विरोधी मानी गयी है, इसलिए भावाभाव का ही परस्पर विरोध होता है, अनागतत्व अतीतत्वाभावरूप नहीं है किन्तु आगतत्वाभावरूप है अथवा भविष्यत्त्वरूप हैं, इसलिए अतीतत्व का विरोधी नहीं बन सकता । तथा अतीतत्व भी अनागतत्वाभावरूप नहीं है, इसलिए अनागतत्व का विरोधी नहीं बन सकता, अतः अतीतत्व और अनागतत्व में परस्पर विरोध ही नहीं दीखता है । तब विरोधप्रयुक्त अतीतानागतकाल संबंधाभाव भी जो आप मानते हैं वह भी कैसे रहेगा?! इसलिए उक्त व्याप्यव्यापकभाव यक्तिसिद्ध नहीं है"-परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि अतीतत्व और अनतीतत्व का परस्पर विरोध आप भी मानते हैं और अनतीतत्व का व्याप्य अनागतत्व है. जहाँ जहाँ अनागतत्व है वहाँ वहाँ अतीतत्वाभाव है-इसतरह की व्याप्ति है। तथा, तबताबद्धि के प्रति जैसे तदभाववत्ता बुद्धि विरोधी मानी गयी है उसीतरह तद्वत्ता बद्धि के प्रति तदभाव याप्यवत्ताबुद्धि भी विरोधी मानी गयी है, इसलिए हद में अग्नि-अभावव्याप्य जलवत्ता का ज्ञान रहने पर हद अग्निमान है ऐसी बुद्धि नहीं होती। प्रकृत में