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उपा० यशोविजयरचिते को काला ही मानता है। इस हेतु से भाष्यकार ने व्यवहारनय के लक्षण में “लौकिकसम" यह विशेषण लगाया है, इस का अर्थ यह है कि लौकिकपुरुष और व्यवहारनय की मान्यता में साम्य होने के कारण व्यवहारनय लौकिकपुरुष सम है । यहाँ एक शंका है कि-शास्त्रीयव्युत्पत्तिमान लोक भ्रमर में रक्तादिवर्ण को भी मानते हैं, वैसा मानने का आधार उन के लिये शास्त्र ही है, इसलिए कृष्णेतरवर्ण का सदभाव भ्रमर में अवश्य है, तब यदि व्यवहारनय इतरवर्ण का प्रतिषेध मानेगा तो अभिप्राय विशेषरूप व्यवहारनय में भ्रान्तत्व का प्रसंग आयेगा ।'-इस का समाधान यह है कि कृष्णेतर रक्तादिवर्ण का सदभाव जो शास्त्र द्वारा भ्रमर में सिद्ध होता है, उस के प्रतिषेध में व्यवहारनय का तात्पर्य नहीं है किन्तु रक्तादिवर्ण भ्रमर में रहते हुए भी उद्भूत (प्रगट) नहीं है अर्थात् प्रत्यक्षयोग्य नहीं है, इसलिए उन की विवक्षा व्यवहारनय नहीं करता है । कृष्णवर्ण तो भ्रमर में उभृत है, अतः कृष्णवर्णमात्र की विवक्षा व्यवहार नय को है । उद्भूतवर्ण की विवक्षा ही "कृष्णवर्णा भ्रमरः” इत्यादि शब्दप्रयोगरूप अभिलाप और भ्रमर में कृष्णता के व्यवहार का हेतु है इसलिए व्यवहारनय भ्रमर में कृष्णवर्ण को ही मानता है और उस में भ्रान्तता का प्रसंग भी नहीं है । रक्तादिवर्ण यद्यपि भ्रमर में रहते हैं, तो भी "भ्रमर रक्त होता है, भ्रमर पीत होता है' इत्यादि वाक्यों का प्रयोग नहीं होता है तो इस का कारण रक्तादिवों में उदभूतत्व न होने के कारण रक्तादिवों की विवक्षा का अभाव ही है।
दूसरा समाधान यह भी है कि “कृष्णवर्णो भ्रमरः” इस वाक्य में कृष्णपद का उद्भूतकृष्ण अर्थ मानकर प्रयोग किया जाता है, इसलिए इस वाक्य से "उद्भूतकृष्णरूपवाला भ्रमर' ऐसा बोध होता है। भ्रमर में रक्तादिरूप उद्भूत तो नहीं है केवल कृष्ण ही उद्भूत है, इस हेतु से इस वाक्य से उत्पन्न बोध में भ्रान्तत्व नहीं आता है । जो लोग “कृष्णो भ्रमरः” इस वाक्य में कृष्णपद का उद्भूतकृष्ण में तात्पर्य है, ऐसा नहीं समझते हैं, ऐसे अतात्पर्यज्ञ श्रोता के प्रति इस वाक्यजन्य बोध में अप्रामाण्य होने पर भी कृष्ण पर उद्भूतकृष्ण में वक्ता का तात्पर्य है, इसतरह तात्पर्य को जाननेवाले श्रोता के प्रति एतदवाक्यजन्यबोध प्रमाण है क्योंकि लोकव्यवहारानुकूल विवक्षा से इस वाक्य का प्रयोग किया है, इसलिए भावसत्यता मानने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि लोक में "भ्रमर कृष्णवर्णवाला होता है" ऐसा ही व्यवहार प्रचलित है और जैसा ही व्यवहार लोक में होता है वैसी ही वक्ता की विवक्षा भी है । "पीतो भ्रमरः” इस वाक्यप्रयोग में भावसत्यता नहीं है क्योंकि लोक में “भ्रमर पीतवर्णवाला है" ऐसा व्यवहार नहीं होता है। अतः यह वाक्य लोकव्यवहारानुकूल न होने के कारण प्रमाणरूप बोध का जनक, व्यवहार नय के अनुसार भी नहीं होता है । “पीतो भ्रमरः" यह वाक्य निश्चयनय के अनुसार भी भावसत्य नहीं है, क्योंकि "पीतो भ्रमरः” इस वाक्य में 'भ्रमर पीत ही होता है'. ऐसा अवधारण करने की क्षमता नहीं है। कारण 'भ्रमर पीत हैं' यह वाक्यप्रयोग लोक के प्रति ही करना है, लोक में विशेषरूप से भ्रमर में कृष्णता की ही प्रसिद्धि है, वह पीतता के अवधारण में विरोधी है। विरोधी के समवधान में पीतता का अवधारण "पीतो भ्रमरः” यह वाक्य कैसे कर सकेगा ? अतः "पीतो भ्रमरः" यह वाक्य भावसत्य नहीं बन सकता किन्तु असत्य ही है । अतएव लोक में प्रमाण नहीं माना जाता ।