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उपा. यशोविजयरचिते ते न विचारचञ्चुर[? चतुर] धियो देवानाम्प्रियाः । उपचाररूपसङ्केतविशेषग्रहे द्रव्यनिक्षेपस्याप्यनतिरेकप्रसङ्गात् , यादृच्छिकविशेषोपग्रहस्य चाप्रामाणिकत्वात् , पित्रादिकृतसंकेतविशेषस्यैव ग्रहणान्नामस्थापनयोरक्याऽयोगात् । एवं च बहुषु नामादिषु प्रातिस्विकैकरूपाभिसन्धिरेव सङ्ग्रहव्यापार इति प्रतिपत्तव्यम् । यदृच्छयैव सङ्ग्रहस्वीकारे तु नाम्नोऽपि भावकारणतया कुतो न द्रव्यान्तर्भाव इति वाच्यम् ! 'द्रव्यं परिणामितया भावसम्बद्धं, नाम तु वाच्यवाचकभावेने'त्यस्ति विशेष इति चेत् ? तर्हि स्थापनाया अपि तुल्यपरिणामतया भावसम्बद्धत्वात् किं न नाम्नो विशेष इति पर्यालोचनीयम् । कारी जो भावेन्द्र है, उस में नामेन्द्रत्व की आपत्ति आएगी। इन्द्रपदसंकेतविशेषविषयत्वरूप नामेन्द्रत्व मानने पर भावेन्द्र में नामेन्द्रत्व की आपत्ति का पारण हो जाता है, क्योंकि इन्द्रपद का भिन्न-भिन्न संकेत स्वीकार करेंगे, इसलिए जैसा इन्द्रपदसंकेतविषयत्व गोपालदारकरूप नामेन्द्र में रहता है, तादृश संकेतविषयत्व भावेन्द्र में नहीं रहता है, किन्तु भावेन्द्र में अन्य प्रकार का संकेतविषयत्व रहता है, अतः उक्त आपत्ति का वारण हो जाता है। इसीतरह इन्द्रप्रतिकृतिरूप स्थापना में भी अन्य प्रकार का ही संकेतविषयत्व रहता है । गोपालदारक में जैसा संकेतविषयत्व रहता है, वैसा संकेतविषयत्व स्थापना में नहीं रहता । अतः स्थापना का अन्तर्भाव नामनिक्षेप में नहीं हो सकता है।"-परन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि संकेत में ऐसे विशेष को माने गे, जिस से नाम, स्थापना इन दोनों का संग्रह हो जायगा और भावेन्द्र की व्यावृत्ति भी हो जायगी । अतः संग्रहनय स्थापना को नामनिक्षेप से अतिरिक्त नहीं मानता कि नाम, द्रव्य, भाव इन तीन निक्षेप को ही मानता है, यही पक्ष सगत है । यह संग्रह में निक्षेपत्रयवादि आचार्यों का अभिप्राय है ।
[संग्रह में निक्षेपत्रय स्वीकार वादी मत का निराकरण ] (ते न विचार०) 'सग्रहनय स्थापना को नहीं मानता है'-इस मत का निराकरण करते हुए प्रस्तुतग्रन्थकर्ता का यह कथन है कि 'स'ग्रहनय में निक्षेपत्रय का ही स्वीकार है' इस मत का समर्थन करनेवालों की बुद्धि सूक्ष्म विचार करने में शक्तिशाली नहीं है। उन लोगों ने “इन्द्रपदस केतविशेषविषयत्वम्” इस नामेन्द्रत्व के निर्वचन में ऐसा विशेष माना है जिस से नाम, स्थापना इन दोनों निक्षेपों का सग्रह हो जाता है, परन्तु नाम, स्थापना साधारण उस विशेष का क्या स्वरूप है, इस का स्पष्टीकरण वे नहीं कर पाए हैं। इसलिए उन से यह पूछना चाहिए कि जिस से स्थापना का भी समावेश नामनिक्षेप में हो जाता है उस सकेतविशेष का क्या स्वरूप है ? यदि वे लोग ऐसा कहे कि वह सकेतविशेष उपचाररूप ही है, तो यद्यपि भावेन्द्र में इन्द्राद का मुख्य संकेत होने से भावेन्द्र की व्यावृत्ति तो हो सकती है, क्योंकि भावेन्द्र में इन्द्रपद का उपचार नहीं होता है । तथापि गोपालपुत्र रूप नामेन्द्र और इन्द्रप्रतिकृतिरूप स्थापनेन्द्र में जैसे उपचार