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नयरहस्यै निक्षेपविचारः
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से ही इन्द्रपद का प्रयोग होता है उसीतरह जो द्रव्य पूर्व में इन्द्रपर्याय का अनुभव कर चुका है और भावि इन्द्र पर्याय का कारण है ऐसे द्रव्येन्द्र में भी इन्द्रपद के सकेत का उपचार करके ही इन्द्र पद का प्रयोग होता है । इसलिए द्रव्यनिक्षेप का भी नामनिक्षेप
समावेश हो जाता । अतः स्थापनानिक्षेप के जैसे- द्रव्यनिक्षेप भी नामनिक्षेप से अतिरिक्त सिद्ध नहीं होगा । इस स्थिति में संग्रहनय में निक्षेपद्वय का ही स्वीकार रह जायगा । निक्षेपत्र का स्वाकार सिद्ध नहीं होगा, तो आप के अभिलषित की सिद्धि नहीं होगी । यदि वे लोग ऐसा कहे कि 'हम ऐसे सकेत विशेष को मानेंगे जिस से द्रव्यनिक्षेप की व्यावृत्ति हो जायगी और स्थापना का संग्रह हो जायगा, अतः हमारे इष्ट की सिद्धि में बाधा न होगी' - परन्तु उन लोगों का ऐसा प्रमाणहीन स्वेच्छाकल्पितविशेष को मानना युक्तिसङ्गत न होगा । अप्रामाणिक वस्तु का स्वीकार करने पर उन के विचारकत्व को हानि पहुँचेगी । ऐसे यादृच्छिक विशेष को मानने में क्या प्रमाण है ? ऐसा पूछने पर वे कुछ भी प्रमाण उपस्थित नहीं कर पाते हैं, अतः ऐसा मानना निर्मूल है ।
यदि वे लोग कहें कि - 'पिता आदि से किया हुआ संकेत ही संकेत विशेषपद से हम विवक्षित करते हैं, अतः भावेन्द्र और द्रव्येन्द्र की व्यावृत्ति हो जायगी क्योंकि इन्द्रनादि ऐश्वर्यविशेष के सम्बन्ध से ही भावेन्द्र इन्द्रपद सकेत का विषय होता है, पिता आदि का संकेत वहाँ नहीं है । द्रव्येन्द्र में भी पिता आदि का संकेत नहीं है'- - परन्तु ऐसा मानने पर स्थापनेन्द्र में भी पिता आदि का संकेत न होने के कारण उस की भी व्यावृत्ति विशेषपद से हो जायगी, तब नाम और स्थापना में ऐक्य नहीं होगा । इस स्थिति में संग्रहनय भी निक्षेप चतुष्टय का स्वीकर्त्ता ही सिद्ध होगा । आप का अभिमत निक्षेपत्र स्वीकर्तृत्व संग्रह में सिद्ध नहीं होगा । यदि यह आशंका उठाई जाय कि'इस रीति से निक्षेपचतुष्टय का स्वीकार संग्रहनय में सिद्ध हो जाने पर भी घटता नहीं है, कारण, नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये एक-एक ही नहीं है किन्तु बहुत है, नाम भी अनन्त हैं, स्थापना भी अनन्त हैं, द्रव्य भी अनन्त हैं, भावेन्द्र भी बहुत हैं । इस रीति से अनन्त निक्षेप स्वीकर्तृत्व का प्रसंग द्रव्यनय में आता है, तब निक्षेपचतुष्टय स्वीकर्तृत्व भी कैसे घटेगा ?' - तो इस का समाधान यह है कि नामादि बहुत होने पर भी सभी नाम में नामत्वरूप से ऐक्य का अनुसन्धानरूप संग्रह का व्यापार रहता है, इसलिए नामनिक्षेप में एकत्व आ जाता है । एवं स्थापना, द्रव्य, भाव इन में भी बहुत्व भले रहे तो भी स्थापनात्वेन सभी स्थापनेन्द्रों में, द्रव्यत्वेन सभी द्रव्येन्द्रों में, भावेन्द्रत्वेन सभी भावेन्द्रों में ऐक्याभिसन्धिरूप संग्रह के व्यापार से एकत्व ही सिद्ध हो जाता है, इसतरह निक्षेप चतुष्टय स्वीकर्तृत्व सुचारुरूप से घटता है, ऐसा समझना चाहिए ।
[ नाम भी कहीं भाव का कारण होने से द्रव्य में अन्तर्भाव की समस्या ]
अपनी इच्छानुसार इन्द्रादिपद में संकेत विशेष की कल्पना करके स्थापना का नामनिक्षेप में अन्तर्भाव करके संग्रहनय में निक्षेपत्रय स्वीकर्तृत्व का दुराग्रह करने में एक दूसरी भी आपत्ति आती है कि नाम भी भावनाविशेष से अनुसन्धान करने पर कहीं