________________
१२४
उपा. यशोविजयरचिते कहीं भाव का कारण बन जाता है । जैसे कि भृङ्गकीटन्यायस्थल में कीट अनुसन्धानविशेष से भृङ्ग बन जाता है। उसीतरह भगवन् नाम के अनुसन्धान विशेष से व्यक्तिविशेष के असाधारण स्वरूप का आविर्भाव हो जाता है। वैसे स्थल में भगवत्स्वरूपात्मक भाव के प्रति भावनाविशेष से अनुसंहित भगवन्नाम ही कारण बनता है। भाव के प्रति कारण को द्रव्य माना जाता है, तो भावकारणतया नामे का भी द्रव्य में अन्तर्भाव क्यों न होगा ? इस प्रश्न का कोई समाधान है ? यदि द्रव्य में नाम का अन्तर्भाव मान लिया जाय तो, संग्रहनय में निक्षेपत्रय का स्वीकार असिद्ध हो जायगा क्योंकि स्थापना का अन्तर्भाव आपने स्वेच्छाकल्पित संकेतविशेष से नाम में किया ही है और उक्त रीति से नाम का द्रव्य में अन्तर्भाव हो जाने पर द्रव्य और भाव ये दो निक्षेप ही अवशिष्ट रह जायेंगे। .. . - यदि यह कहा जाय कि-"द्रव्य का भावरूपेण परिणाम होता है, इसलिए द्रव्य और भाव में परिणामि-परिणामभाव सम्बन्ध रहता है, अतः द्रव्य स्वनिष्ठपरिणामिता-निरूपित परिणामत्व सम्बन्ध से अथवा स्वनिष्ठपरिणामितानिरूपकत्व सम्बन्ध से भाव से सम्बद्ध रहता है । इसीलिए भाव और द्रव्य ये दोनों निक्षेप भिन्न भिन्न माने जाते हैं। उसीतरह नाम भाव का वाचक होता है और भाव नाम का वाच्य होता है इसलिए इन दोनों में वाच्यवाचकभाव माना जाता है। अतः नाम स्वनिष्ठवाचकतानिरूपित वाच्यता सम्बन्ध से अथवा स्वनिष्ठवाचकतानिरूपकत्व सम्बन्ध से भाव के साथ सम्बद्ध रहता है। जैसे-परिणामि-परिणामभाव सम्बन्ध में भेदघटितत्व होने के कारण द्रव्य और भाव में भेद रहता है, तथा द्रव्य में भाव का अन्तर्भाव नहीं होता, उसी तरह वाच्यवाचक भाव सम्बन्ध भी भेदघटित होता है अतः नाम और भाव में भेद भी रहता है । नाम और द्रव्य का ऐक्य तो तब होता यदि जिस सम्बन्ध से द्रव्यभाव में सम्बद्ध होता है उसी सम्बन्ध से नाम भी भाव में सम्बद्ध होता, परन्तु ऐसा तो है नहीं। द्रव्य को भाव में सम्बद्ध होने के लिए स्वनिष्ठपरिणामितानिरूपकत्व सम्बन्ध की अपेक्षा रहती है और नाम को भाव में सम्बद्ध होने के लिए स्वनिष्ठवाचकतानिरूपकत्व सम्बन्ध की अपेक्षा रहती है, अतः नाम का द्रव्य में अन्तर्भाव नहीं हो सकता है"-परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जिस सम्बन्ध से नाम भाव के साथ सम्बद्ध होता है उस सम्बन्ध से स्थापना भी भाव के साथ सम्बद्ध नहीं होती किन्तु तुल्य परिणामत्व सम्बन्ध से ही स्थापना भाव के साथ सम्बद्ध होती है क्योंकि इन्दनादिरूप भावेन्द्र स्वकारणीभूत द्रव्य का जैसा परिणाम है वैसा ही काष्ठादिनिर्मितरूप स्थापना भी स्वकारणीभूत काष्ठादि का परिणामविशेष है, इन दोनों परिणामों में आकार का साम्य रहता है, इसलिए भाव में सम्बद्ध होने के लिए स्थापना को भी तुल्यपरिणामत्व सम्बन्धान्तर की ही अपेक्षा रहती है । अतः सम्बन्धभेद से सम्बद्ध होने के कारण यदि नाम का द्रव्य में अन्तर्भाव न माना जाय तो, स्थापना का भी नाम में अन्तर्भाव मानना युक्त नहीं कहा जा सकता है क्योंकि स्थापना भी तो सम्बन्धान्तर से भाव में सम्बद्ध होती है, यह पूरा विचार करना चाहिए।