Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Andheri Gujarati Jain Sangh

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Page 126
________________ नयरहस्ये नैगमनयः मुख्यत्वरूपस्वातन्त्र्येण नामादित्रयविषयत्वमेव द्रव्यार्थिकस्येत्यभिप्रेत्य मतान्तरेण वा तथोक्तिः । अत एवोक्त तत्त्वार्थवृत्तावपि-"अत्र चाया नामादयस्त्रयो विकल्पा द्रव्यार्थि(स्ति)कस्य तथा तथा सर्वार्थत्वात् , पाश्चात्यः पर्यायनयस्य तथापरिणतिविज्ञानाम्माम्' (सूत्र-५) इति । नैगमादि नयों में सिद्ध हो जाता है, इसलिए नामादि निक्षपत्रय के अभ्युपगम का कथन भाध्यकार का कैसे संगत हो सकता है ?'-परन्तु यह शंका ठीक नहीं है । कारण, जैसे नामनिक्षप का स्वीकार है वैसे उपयोगनिक्षेप का पृथक् स्वीकार नहीं किया गया है, अतः प्रत्ययरूप उपयोग में नामतुल्यता नहीं आ सकती है। इसलिए इस प्रकरण में नामादि निक्षेपत्रय के अभ्युपगम का कथन सर्वथा संगत है । आगे चलकर "भावं चिय" इत्यादि गाथा से और "सव्वणया भावमिच्छति" इस गाथा से जो द्रव्यार्थिक नयों में निक्षेप चतुष्टयाभ्युपगम का कथन भाष्यकार ने किया है उस का अभिप्राय यह है कि, वे दोनों गाथाएँ व्यवस्था के प्रकरण में पठित हैं। कौन नय कितने निक्षेप को तथा भावसाधु को मानते हैं, इस की व्यवस्था उस प्रकरण में की जाती है। द्रव्यार्थिक नयों में निक्षेप चतुष्टय का स्वीकार है और शब्दनयों में भावनिक्षेप मात्र का स्वीकार है-ऐसी व्यवस्था उस प्रकरण में की गयी है, इसलिए अधिकार भेद से अर्थात् प्रकरणभेद से द्रव्यार्थिक नयों में नामादि निशेपत्रय का अभ्युपगम कथन तथा नामादि निक्षेप चतुष्टय के अभ्युपगम का कथन, परस्पर विरुद्ध नहीं है। एक ही प्रकरण में यदि ऐसा कथन होता तो विरोध की सम्भावना होती। प्रकरणभेद से दोनों कथन में विरोध को अवकाश ही नहीं है। [ मुख्यत्व रूप स्वातन्त्र्य को लेकर तात्पर्यभेद-समाधान ] (मुख्यत्वरूप) अथवा, पूर्व में जो नामादि निशेषत्रयाभ्युपगम का कथन भाष्यकार ने किया है, वह अपने मत के अनुसार नहीं किया है, किन्तु मुख्यत्वरूप स्वातन्त्र्य से अर्थात् द्रव्यार्थिकनय मुख्यतया नामादि निक्षेपत्रय को ही मानता है, इस मतान्तर के अभिप्राय से पैसा कहा है । तब तो भाष्यकार के कथन में विरोध की आशंका का अवसर ही नहीं आता है, क्योंकि भाज्यकार के अभिप्राय से द्रव्यार्थिकनयों में नामादि निक्षेपचतुष्य का अभ्युपगम है, यह एक पक्ष ही सिद्ध होता है। इस मतान्तर के आश्रयण से ही "तत्त्वार्थसूत्र' की (अ. १, सू०५) वृत्ति में जो कहा गया है कि आद्य नामादिनिक्षेपत्रय अर्थमात्रव्यापि होने से द्रव्यार्थिकनय मानता है । पर्यायनय भावनिक्षेप को मानता है क्योंकि पर्यायनय वर्तमानपर्याय को ही मानता है। प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण परिणमनशील है, इसलिए वस्तु का ज्ञान भी प्रतिक्षण भिन्न भिन्न ही होता है। अतः प्रतिक्षण भिन्न भिन्न वस्तु और भिन्नतया उस का ज्ञान यहा पर्यायनय को स्वीकार्य है और यही उस के मत से भाव है । उसी भावनिक्षेप को पर्यायनय मानता है । तत्वार्थवृत्ति का यह अर्थ भी मुख्यतया नामादि निक्षेपत्रय मात्र का अभ्युपगम द्रव्यार्थिक नय करता है इस मतान्तर के अनुसार संगत है। भाष्यकार की व्यवस्था के अनुसार द्रव्याथिकनय में नामादिनिक्षेप चतुष्टयाभ्युपगम की ही व्यवस्था है ।

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