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नयरहस्ये निक्षेपविचारः
भेदस्य द्रव्यविशेषणतया पर्यायाभ्युपगमान्न तत्र भावनिक्षेपानुपपत्तिः । अत एवाहभगवान् भद्रबाहुः-"जीवो गुणपडिवन्नो, णयस्स दव्व ट्ठियस्स सामइयं ॥ (आव. नि. गा. ७९२)" न चैवं पर्यायार्थिकत्वापत्तिः, इतराऽविशेषणत्वरूपप्राधान्येन पर्यायानभ्युपगमात् । शब्दादीनां पर्यायाथिकनयानां तु नैगमवदविशुद्धथभावान्न नामाद्यभ्युपगन्तृत्वम् । अवास्तवतद्विषयत्वं तु नोक्तविभागव्याघातायेति पर्यालोचयामः ॥ समाधान उपाध्यायजी अपने मत से ऐसा देते हैं कि "अविशुद्धनैगमनय” के भेद नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीन निक्षेपों का ही भले स्वीकार करें, परन्तु विशुद्ध नैगमभेद तो द्रव्य के विशेषणरूप से पर्याय का भी स्वीकार करता है । इसलिए विशुद्धनैगम में भावनिक्षेप का स्वीकार कोई आपत्तिरूप नहीं है, प्रधानरूप से द्रव्यमात्र का ही अभ्युपगम वह करता है। पर्याय का अभ्युपगम तो गौणरूप से करता है, इसलिए द्रव्यार्थिकत्व की हानि का प्रसङ्ग नहीं आता है । प्रधानतया द्रव्यमात्र का अभ्युपगम ही द्रव्यार्थिकत्वव्यपदेश का निमित्त है, सो तो विशुद्धनैगम में रहता ही है। विशुद्धगम द्रव्य के विशेषणरूप में पर्याय का भी स्वीकार करता है, इस में भगवान भद्रबाहु का वचन भी प्रमाण रूप से उपस्थित है____ “जीवो गुणपडिवन्नो, णयस्स दव्व ट्ठियस्स सामइय।” (आव. नि. गा. ७९२)-यह भगवान भद्रबाहु का वचन है-किस नय का कौन सा सामायिक है, इस प्रकरण में यह गाथा है । सम्यक्त्वादि गुणों से आश्रित जीव द्रव्यार्थिकनय का सामायिक है ऐसा भद्रबाहु स्वामी का कथन है। सामायिक शब्द का अर्थ "समानां ज्ञानदर्शनचारित्राणामायः समायः स एव सामायिकम" इस विग्रह के अनुसार 'सर्व ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुणों का लाभ' ऐसा होता है । सम्यक्त्वादि गुणों से आश्रित जीव को द्रव्यनयों का सामायिक कहने में गुणरूप पर्याय का द्रव्यविशेषणरूप से स्वीकार नैगमनय में सिद्ध हो जाता है, क्योंकि वह भी द्रव्यार्थिकनय है। इस से उपाध्यायजी के कथन को समर्थन मिल जाता है ।
शंका:-यदि नैगम पर्याय को भी स्वीकार करता है तो उस में पर्यायार्थिकत्व का प्रसङ्ग आ जायगा ? समाधान:-पर्याय के स्वीकार मात्र से पर्यायार्थिकत्व का प्रसङ्ग देना उचित नहीं है । इतराऽविशेषणत्वरूप से प्रधानतया पर्याय का स्वीकार करना ही पर्यायनयत्व व्यपदेश में निमित्त है। इसलिए नैगमनय की गणना पर्यायनयों में होती नहीं है क्योंकि वह पर्याय को प्रधानरूप से स्वीकार नहीं करता है किन्तु द्रव्य में विशेषणरूप से पर्यायों को मानता है, इसलिए नैगम में भावनिक्षेप मानने पर भी पर्यायार्थिकता की आपत्ति नहीं आती है और निक्षेप चतुष्टय स्वीकर्तत्व की अव्याप्ति भी नहीं होती है। शब्दादि पर्यायार्थिकनयों में निक्षेपचतुष्टयाभ्युपगम नहीं है। कारण, नैगम के जैसी अवि. शुद्धि उस में नहीं है, किन्तु वे विशुद्धियुक्त हैं, इसलिए भावनिक्षेप मात्र का स्वीकार करते हैं । तब यह शंका होती है कि-"भगमनय विशेषणरूप से भी यदि पर्याय का स्वीकार करता है तो नैगमादि द्रव्यार्थिकनय हैं और ऋजुसूत्रादि पर्यायार्थिकनय है, ऐसा जो विभाग किया गया है वह असङ्गत होगा क्योंकि गौणरूप से भी पर्याय का स्वीकार