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उपा. यशोविजयरचिते
सङ्ग्रहनयस्वीकृतात्मसामान्यसामायिकविधिनियमनाय प्रवृत्तानां पर्यायशुद्धिमतां व्यव. हारादिनयानां यावदेवम्भूतमुत्तरोत्तरपर्यायकदम्बकविशेषणोपरागेणैव प्रवृत्तिदर्शनात् । चाहिए । पर्यायनय में विशेषणीभूत द्रव्य कल्पित हो और द्रव्यनय में विशेषणीभूत पर्याय कल्पित तथा अकल्पित भी हो, यह अर्धजरति न्याय उचित नहीं है । और ऐसा मानने में कोई युक्ति भी नहीं दिखती है । अतः नयमात्र में समान न्याय से सर्वत्र विशेषण को कल्पित ही मानना चाहिए । तब तो द्रव्यनय में विशेषणीभूत पर्याय को अकल्पित मानकर निक्षेपचतुष्टय के अभ्युपगम का समर्थन करना योग्य नहीं है।"-उपाध्यायजी इस शंका का समाधान करते हुए बताते है कि*"सावज्जजोगविरओ, तिगुतो छसु सजओ । उवउत्तो जयमाणो, आया सामाईय होई"
इस आवश्यक नियुक्ति -७९० गाथा के अन्तर्गत भाष्य गाथा १८९ में अविशेषरूप से आत्मा सामायिक है, ऐसा संग्रहनय ने जो माना है, उस को नियमन यानी संकोच करने के लिए अर्थात सभी आत्मा सामायिक नहीं, किन्तु, उक्त गाथा में प्रोक्त "सावद्य योगविरत” आदि विशेषणों से युक्त आत्मा ही सामायिक है, इस नियम को करने के लिए प्रवृत्त, आपेक्षिकपर्यायशुद्धि को माननेवाले व्यवहारादि एवम्भूत पर्यन्त नयों की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर विशेषण स्वरूप पर्यायों को मान कर के ही देखने में आती है । यदि उन नयों की दृष्टि से वे पर्याय कल्पित ही होते, तो विशेषणोपराग से उन की प्रवृत्ति नहीं होती। इसलिए 'नयों में विशेषण कल्पित ही होना चाहिए,' यह नियम मानना उचित नहीं है।
यहाँ किस नय में कैसे आत्मा को सामायिक माना है, इस का अनुसन्धान कर लेना भी आवश्यक है। उक्त नाथा के विवरण में "आवश्यक नियुक्ति" दीपिकाकार ने स्पष्टीकरण किया है कि संग्रहनय सामान्यरूप से सभी आत्मा को सामायिक मानता है। परन्तु, व्यवहारनय इस बात को नहीं मानता । व्यवहारनय का कथन है कि सभी आत्मा सामायिक नहीं है, किन्तु 'यतमान'-यतना से काम करनेवाला आत्मा ही सामायिक है। "ऋजुसूत्र” को वह भी मान्य नहीं है। ऋजुसूत्र का कथन है कि यतमान आत्माओं में भी जो उपयोग (पूरी सावधानी से) युक्त है वही यतमान आत्मा सामायिक है । जो आत्मा अपने कर्तव्यों में उपयोगवाले नहीं है, वे यतमान होते हुए भी सामा. यिक नहीं है । "शब्दनय" (साम्प्रतनय) को वह भा मान्य नहीं है क्योंकि “साम्प्रतनथ" "ऋजुसूत्र” से अभिमत अर्थ की अपेक्षा विशेषिततर अर्थ को मानता है, अतः शब्दनय (साम्प्रतनय) के अभिप्राय से सावद्ययोगविरत उपयुक्त आत्मा ही सामायिक है। "समभिरूढनय" तो वैसे आत्मा को भी सामायिक नहीं मानता है क्योंकि वह ऋजुसूत्राभिमत अर्थ की अपेक्षा विशेषिततम अर्थ का ग्राही है इसलिए समभिरूढ के अभिप्राय से यतमान उपयुक्त सावद्ययोगविरत आत्मा भी मनोगुप्ति, कायगुप्ति, वचनगुप्तिरूप गुप्तित्रय विशेषण से युक्त होने पर ही सामायिक माना जाता है । "एवम्भूतनय" तो ममभिरूढ की अपेक्षा से भी अधिकविशेषतमरूप अर्थ का ग्राही है, अतः इन विशेषणों से युक्त आत्मा को भी * (सावद्ययोगविरतः त्रिगुप्तः, षट्सु संयाः । उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिक भवति ।)