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उपा. यशोविजयरचिते एतेन "द्रव्यार्थिकपर्यायाथिकयोद्वयोस्तुल्यवदेवोभयाभ्युपगमः परमाद्यस्य सर्वथाऽभेदेनान्त्यस्य तु सर्वथा भेदेन, ततो नैक स्योभयविषयत्वे विषयान्तरग्रहार्थमन्यकल्पनानुपपत्तिः, भेदाभेदोपरागेणोभयग्रहार्थमुभयकल्पनावश्यकत्वादिति द्रव्यार्थिकस्यापि पर्यायसहत्वमिति" अपास्तम् ।
इस शङ्का का समाधान इसप्रकार से कोई देते हैं कि "द्रव्य का प्रधानरूप से स्वीकार करनेवाला "नैगमनय” द्रव्यार्थिकनय होने पर भी भावनिक्षेप का स्वीकार कर सकता है, इस में द्रव्यार्थिकत्व की हानि का प्रसङ्ग नहीं आयेगा । कारण प्रधानतया द्रव्य के जैसे पर्याय को भी यदि नैगम स्वीकार करता तो द्रव्यार्थिकत्व का व्याघात अवश्य होता, परन्तु ऐसा तो नहीं है। प्राधान्येन द्रव्यमात्र का स्वीकर्ता नय द्रव्यार्थिकनय है-यह लक्षण पर्यायरूप भाव को गौणतया स्वीकर्ता नैगमनय में जाता ही है, इसलिए भावनिक्षेप का स्वीकार करने पर भी नैगमनय में द्रव्यार्थिकत्व की हानि नहीं होती।" परन्तु यह समाधान संगत नहीं लगता । कारण, जिसतरह प्रधानरूप से द्रव्य को माननेवाला और गौणरूप से पर्याय को माननेवाला द्रव्यार्थिकनय भावनिक्षेप का स्यीकर्ता सिद्ध किया गया है, उसी रीति से पर्याय को प्रधानरूप से और द्रव्य को गौणरूप से माननेवाले शब्दनय भी द्रव्यनिक्षेप को स्वीकार करनेवाले सिद्ध हो जायेंगे । तब 'भाव चिय सद्दणया, सेसा इच्छति सव्वणिक्खेवे'-इस भाष्य से जो व्यवस्था नयों के विषय में की गई है, वह सिद्ध नहीं होगी । आशय यह है कि शब्द, समभिरूढ, एवम्भूत ये तीनों नय शब्दनय कहे जाते हैं । इन नयों को पर्यायनय भी कहते हैं । भाष्यकारने "भावमेव-इच्छन्ति शब्दनयाः” ऐसा कह कर भाव निक्षेपमात्र के स्वीकर्ता ये नय हैं ऐसा सूचित किया है । पूर्वोक्त रीति से तो इन नयों में भी द्रव्य निक्षेप स्वीकर्तृत्व सिद्ध हो जाता है, तब द्रव्य निक्षेप स्वीकार की व्यावृत्ति के लिए भाष्य में जो एवकार का प्रयोग किया गया है वह असंगत बन जाता है इसलिए उक्त समाधान ठीक नहीं है ।
[ द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दोनों के तुल्य अभ्युपगम का निरसन ] (एतेन०)-कोई आचार्य नैगमनय में नामादि निक्षेप चतुष्टय के अभ्युपगम का समर्थन करने के लिए कहते हैं कि-"द्रव्यार्थिक-नय और पर्यायार्थिकनय, दोनों ही समानरूप से द्रव्य और पर्याय को स्वीकारते हैं, परन्तु द्रव्यार्थिकनय, द्रव्य और पर्यायों में सर्वथा अभेद मानता है और पर्यायार्थिकनय द्रव्य और पर्यायों में सर्वथा भेद मानता है, इसलिए इस शंका को भी अवकाश है कि 'यदि ये दोनों नय उभयग्राहि हैं, तो इन दोनों नयों में से एक को ही मानना चाहिए' कारण, एक नय से भी द्रव्य और पर्याय इन दोनों का ग्रहण हो जायगा । एक नय से गृहीत विषय की अपेक्षा अन्य विषय को ग्रहण करने के लिए नयान्तर की कल्पना आवश्यक होती है । यहाँ तो ऐसा है हा नहीं । द्रव्याथिकनयगृहीत वस्तु से भिन्न विषय का ग्राहक पर्यायार्थिकनय नहीं होता और पर्यायाथिकनयग्रहीत वस्तु से भिन्न विषय का ग्राहक द्रव्याथिकनय नहीं होता, दोनों का विषय द्रव्य और पर्यायरूप विषय एक ही है, तब तो, केवल द्रव्याथिक अथवा केवल