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नयरहस्ये निक्षेपविचारः
१०३ ननु "तथापि नैगमेन नामादिचतुष्टयाभ्युपगमे तस्य द्रव्यार्थिकत्वब्याहतिः स्यात् , द्रव्यार्थिकेन द्रव्यस्यैवाभ्युपगमात् । 'द्रव्यं प्रधानतया, पर्यायं च गौणतयाभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिकोऽपि भावनिक्षेपसह इति' चेत् ? हन्त ! तर्हि त्वदुक्तरीत्या शब्दनया अपि द्रव्यनिक्षेपसहा इति कथम् 'भावं चिय सद्दणया, सेसा इच्छंति सव्वणिक्खेवे'त्ति [ गाथा २८४७ ] भाष्योक्तव्यवस्था ? में नहीं आता है । रज्जु में किसी को सर्पबुद्धि हो जाती है तब वह रज्जु सर्पाकार परिणाम को प्राप्त करती हो ऐसा देखने में नहीं आता है, किन्तु रज्जु स्वरूप ही रहती है। उस में सर्पबुद्धि भले ही दोषवशात् हो जावे, तो भी वह अपने आकार का त्याग नहीं करती । इसीतरह गुणपर्याय से सदायुक्त जीव में यदि यह बुद्धि हो जाय कि 'जीव गुणपर्याय से रहित है', तो इसवुद्धि के प्रभाव से जीव गुणपर्यायों को छोड नहीं देगा, अर्थात् गुणपर्याय से वियुक्त नहीं बन जाता है । गुण और पर्याय से वियुक्त यदि जीव बन जाय तो जीव में जीवत्व ही नहीं रहेगा, कारण, गुण और पर्याय द्रव्य का असाधारण धर्म है । असाधारण धर्म का त्याग करने पर वस्तु का स्वरूप ही नहीं रह सकता। जसे-गो अश्वादि वस्तु गोत्व अश्वत्वादिरूप अपने असाधारण धर्म का त्याग कर दे तो गो अश्वादि का स्वरूप ही नहीं रह सकेगा। अश्वत्वादि असाधारण धर्मों की संज्ञा से ही अश्व अश्वस्वरूप रहता है। अतः 'जीव गुणपर्याय से वियत है। ऐसी बुद्धि होने पर गुणपर्याय वियुक्त जीव परिणाम होना बिलकुल सम्भव नहीं है, इसलिए बुद्धि के आधार पर गुणपर्यायवियुक्त जीव ही द्रव्यजीव है, ऐसा मानना सूक्ष्मबुद्धियों की दृष्टि से सङ्गत नहीं है।
(जीवशब्दार्थ) नामादि चतुष्टय में सर्ववस्तुयापिता सिद्ध करने के लिए द्रव्यजीव की व्याख्या कोई आचार्य इसप्रकार देते हैं कि जीवशब्द के अर्थ को जाननेवाला भी जब जीवशब्दार्थ विषयक उपयोग से रहित रहता है, तब वही द्रव्यजीव है, अथवा जीवशब्दार्थ को जानने वाले जीव का शरीर जब जीवरहित बनता है, तब वैसा शरीर ही द्रव्यजीव है इसलिए द्रव्यनिक्षेप सर्ववस्तुव्यापि है।
[ नैगमनय में नामादि स्वीकार से द्रव्यार्थिकत्व व्याघात शंका ] (ननु तथापि) यहाँ एक दीर्घ आशङ्का है
पूर्वोक्त रीति से नामादि निक्षेपचतुष्टय में सर्ववस्तु व्यापिता का यदि समर्थन किया जाय, तो “नैगमनय" में नामादि निक्षेपचतुष्टय का स्वीकार सिद्ध हो जाता है । इस दशा में नैगम नय" में जो द्रव्यार्थिक नयत्व का अभ्युपगम है, उस का विरोध उपस्थित होगा क्योंकि द्रव्यमात्र का अभ्युपगम जो करता है, वही द्रव्यार्थिक माना जाता है। नामादिनिक्षेपचतुष्टय का अभ्युपगम करने पर गमनय" में भाव का अभ्यपगम भी हो जाता है, इसलिए "द्रव्यमात्र स्वीकर्तृत्व" नैगम में नहीं रहता है। तब द्रव्यार्थिकत्व नैगम में कैसे रह सकेगा ? अतः “नैगमनय” को यदि द्रव्याथिकनय मानना हो तो, निक्षेप चतुष्टय स्वीकतत्व नैगन में नहीं मानना चाहिए अन्यथा द्रव्यार्थिकत्व की हानि होगी।