________________
नयरहस्ये निक्षेपविचारः एतच्च मतं नातिरमणीयम् , द्रव्यार्थिकेन शब्दपुद्गल रूपस्यैव नानोऽभ्युपगमात् । मनुष्यादीनां द्रव्यजीवत्वे च सिद्धस्यैव भावजीवत्वप्रसङ्गात् आदिष्टद्रव्यहेतुद्रव्यद्रव्योपगमे भावद्रव्योच्छेदप्रसङ्गाच्च ॥ जीव में भी द्रव्यनिक्षेप की प्रवृत्ति सम्भवित है। मनुष्यादि जीव ही द्रव्यजीव हो सकता है । कारण, मनुष्यादिरूप जीव भावि देवादि जीवपर्यायों का हेतु है, इसलिए मनुष्यादिरूप जीव, द्रव्यजाव हो सकता है, अतः द्रव्य निक्षेप की प्रवृत्ति जीव में होने से व्यभिचार नहीं आता है। तथा मृदादि द्रव्य में भी द्रव्यनिक्षेप का व्यभिचार नहीं आता है, कारण कि घटादि पर्यायों में पर्यायार्थिक नय के आदेश से पर्यायत्व ही है, तथापि "द्रव्यार्थिकनय” के आदेश से घटादि पर्यायों में भी आपेक्षिक द्रव्यत्व सिद्ध होता है और उन घटादि द्रव्य का कारण मृदादि है, अतः मृत्तिका ही द्रव्यद्रव्य है । इसतरह से घट भी द्रव्य द्रव्य हो सकता है क्योंकि उत्तरोत्तर भग्नघटादि पर्यायों का कारण वह भी है और उन पर्यायों में भी द्रव्यार्थिक नयादेश से द्रव्यत्व का आदेश है तथा उत्तरोत्तर पर्यायों में मृत्तिका के जैसे वह भी अनुगत है अतः द्रव्यद्रव्य भी अप्रसिद्ध वस्तु नहीं है, इसलिए द्रव्य निक्षेप की प्रवृत्ति मृदादि में होने से सर्व वस्तु व्यापिता सिद्ध हो जाती है।
[ केवलिप्रज्ञारूप नामनिक्षेप मानना रमणीय नहीं ] "एतच्च मतमित्यादि="उपाध्यायजी" की दृष्टि से उपरोक्त मत भी अति सुन्दर नहीं है । यद्यपि इन आचार्य के मत से निक्षेप चतुष्टय की सर्ववस्तुव्यापिता सिद्ध हो जाती है, इसलिए उक्त मत को रमणीय कहा जा सकता है, तथापि अन्य दोष इस मत में उपस्थित होते हैं, अतः अतिरमणीय तो यह मत भी नहीं हो सकता । कारण, द्रव्यार्थिकनय विशेष ही "नैगमनय" है । अतः “नैगमनय” केवलिप्रज्ञा में नामत्व का स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि प्रज्ञा मात्र आत्मा का चैतन्यरूप गुण है, इसलिए केवलिप्रज्ञा भी आत्मचैतन्यरूप है, वह नाम नहीं हो सकता है । द्रव्यार्थिकनय से तो नाम केवल शब्दपुदगलरूप ही होता है । अतः अन भिलाप्य भावों में नामनिक्षेप की प्रवृत्ति न होने से व्यभिचार खडा ही रहता है क्योंकि शब्दपुदगलरूप कोई भी नाम अनभिलाप्यभावों का नहीं है। तथा मनुष्यादिजीवों में द्रव्यजीवत्व मानकर व्यभिचार का वारण करना भी युक्त नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर संसारी सभी जीवों में द्रव्यजीवत्व ही सिद्ध होगा। कारण, संसारदशा में सभी जीवों को एकगति से अन्यगति में आना जाना होता रहता है, इसलिए अन्यतरगतिवर्तीजीवकारणत्व गत्यन्तरवर्ती जीवों में रहता ही है, अतः भावजीवत्व संसारीजाव में नहीं आयेगा, किन्तु सिद्ध जीवों में ही भावजीवत्व रहेगा, क्योंकि सिद्धजीव किसी अन्यगति के जीव के प्रतिकारण नहीं बनते हैं। शास्त्र दृष्टि से मनुयादि जीव भी भावजीव माने जाते हैं, अतः मनुष्यादि जीव को द्रव्यजीव मानकर व्यभिचार वारण करना सङ्गत नहीं है । एवम् , द्रव्यार्थिक नयादेश से घटादि पर्यायों में आदिष्ट द्रव्यत्व को मानकर घटादि पर्यायरूप द्रव्यों के प्रति कारण होने से मृदादि द्रव्य में