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नयरहस्य
'तादात्म्य' शब्द से 'अविष्वगभाव' अभिप्रेत है अर्थात् जिस वस्तु में जो अनन्तधर्म रहते हैं वे धर्म उस वस्तु से पृथग नहीं है । तात्पर्य यह है कि वे धर्म अपने धर्मी से न तो अत्यन्त भिन्न है और न अत्यन्त अभिन्न है तथापि जिस धर्म का प्रतिपादन अभीष्ट होता है तविषयक ज्ञानावरणीय क का क्षयोपशम होने से वह धर्म बुद्धि का विषय होता है । इसलिए वह धर्म धर्मी के साथ सन्निकृष्ट माना जाता है । तथा जिस धर्म का प्रतिपादन करने का प्रकृत में कुछ प्रयोजन नहीं है उस धर्म का प्रतिपादन अभीष्ट नहीं होता है । इसलिए तद्धर्मविषयक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम भी उस काल में नहीं रहता है । इसलिए वह धर्म उस धर्मी से उस काल में असन्निकृष्ट माना जाता है क्योंकि वह धर्म उस काल में वुद्धिगत नहीं रहता है। ऐसे ही प्रकरणवशात् कोई धर्म किसी काल में बुद्धिगत होता है और जिन का प्रकरण आदि नहीं रहता है वे धर्म बुद्धिगत नहीं होते हैं। इसलिए वुद्धि के सम्बन्ध और असम्बन्ध से सन्निकर्ष और असन्निकर्ष की व्यवस्था होती है। जब द्रव्यविषयक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम रहता है तब द्रव्य में प्रधानता रहती है परन्तु उस समय भी पर्यायों का आर्थन्याय से भाव उस वस्तु में रहता ही है । तथा पर्यायविषयक ज्ञानावरणीय कर्म का जब क्षयोपशम रहता है, उस समय पर्याय में प्रधानता रहती है तथापि आर्थन्याय से द्रव्य की भी सत्ता वहाँ रहती ही है।
[ आर्थन्याय का स्पष्टीकरण ] शब्द द्वारा एक पदार्थ का ज्ञान होने पर उस पदार्थ से सम्बन्धित अन्य पदार्थ का जो ज्ञान होता है उसी को आर्थन्याय कहते हैं । जैसे- “राजा आगतः" इस वाक्य से राजा का आगमन शब्द से बोधित होता है और राजसम्बन्धि राजभत्य, दीवान वगैरह का आगमन भी ज्ञात हो जाता है। क्योंकि राजा भृत्यों के विना अकेले ही कहीं आता जाता नहीं है। वहाँ राजभत्य का आगमन जो प्रतीत होता है-यह शब्द से नहीं प्रतीत होता है क्योंकि 'राजा आगतः' इस वाक्य में भृत्यबोधक कोई शब्द नहीं है, किन्तु शब्दबोधित राजा के आगमनरूप अर्थ से ही भृत्यागमनरूप अर्थ का भी ज्ञान हो जाता है । इसी का शास्त्र में आर्थन्याय शब्द से शास्त्रकार लोग व्यवहार करते हैं । कहीं कहीं तो आर्थन्याय के स्थान में “अर्थात्" अथवा "अर्थतः” इन शब्दों का भी व्यवहार शास्त्र में और लोक में भी होता है। इसलिए द्रव्य की प्रधानता का ज्ञान जहाँ होता है, वहाँ गौणरूप से पर्याय की भी सत्ता रहती है, तथा पर्याय का प्रधान भाव से जहाँ ज्ञान होता है वहाँ भी आर्थन्याय से द्रव्य की सत्ता भी प्रतीत होती है। इसलिए अनन्तधर्मात्मक वस्तु के धर्मों में अपेक्षाकृत गौण-प्रधान भाव होने पर भी अनन्तधर्मात्मक वस्तु तो स्वयं न प्रधानभूत है, न गुणभूत है। ऐसी वस्तु में शबलरूपता हाने पर भी क्षयोपशमानुसार सत्त्व-घटत्वादि एकतर धर्म की प्रतिपत्ति हाने में कोई बाधा नहीं है।
[अर्पितानर्पित सूत्र का तात्पर्य ] इस वस्तु को प्रमाणित करने के लिए तत्त्वार्थ सूत्रकार की सम्मति “तदिदमुक्तम्"