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नयरहस्ये नैगमनयः
है । “अर्थक्रियाकारित्वं सत्त्वम्" यह बौद्ध सम्मत सत् का लक्षण है यह भी अद्वैतवेदान्ती को मान्य नहीं है। उन के मत में ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, निर्धर्मक, निर्विशेष स्वीकृत है। शुद्ध ब्रह्म पुष्करपलाश जैसा निर्लेप है अतः अर्थक्रिया उस में सम्भवित नहीं है इसलिए बौद्धसम्मत सत्त्व भी उन के मत से सङ्गत नहीं है, वे लोग “त्रिकालाबाध्यत्वरूप सत्त्व" मानते हैं। जिस वस्तु का भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों में से किसी काल में किसी भी प्रमाण से बाध नहीं होता है वही वस्तु सत् है । ऐसी वस्तु केवल ब्रह्म ही है । ब्रह्मसाक्षात्कार होने के बाद घट-पटादिरूप प्रपञ्च का बाध हो जाता है, अतः घटपटादि पदार्थ प्रत्यक्षादि प्रमाण से प्रतीयमान होने पर भी सत् नहीं है ऐसी उन की मान्यता है।
दूसरी भी युक्ति वे लोग देते हैं कि “जो सर्वत्र अनुवर्तमान होता है वह सत् हैजो व्यावर्तमान होता है वह प्रतीयमान होने पर भी सत नहीं है । 'घटःसन, पटःसन्' इत्यादि सभी प्रतीतियों में सत् अनुवत्त मान है, इसलिए सत्पदवाच्य ब्रह्म ही सत्य है । 'घटःसन्' इस प्रतीति में यद्यपि घट भी अनुवर्तमान है, तथापि “पटःसन्" इस
ते में घट की व्यावृत्ति हो जाती है क्योंकि पटःसन् इस प्रतीति में घट का आभास नहीं होता । तथा, “पटःसन्" इस प्रतीति में पट अनुवर्तमान है तो भी "घटःसन्' इस प्रतीति में पट की व्यावृत्ति हो जाती है, कारण, घटःसन् इस प्रतीति में पट का आभास नहीं होता है । अतः घट पट आदि समस्त प्रपञ्च असत् है । असत् होने पर भी ये सब अविद्यावशात् ब्रह्म में कल्पित हैं इसलिए 'घटःसन्' इत्यादि प्रतीतियों में भासित होते हैं । “घटःसन्" इत्यादि प्रतीतियों में सत् और घटादि का समानाधिकरण भासित होता है। विभिन्न रूप से 'घट' और 'सत्' पद एक ही अर्थ के बोधक होते हैं, इसीलिए घटपटादि पदार्थ सत् से अविशिष्ट हैं, अर्थात् अभिन्न हैं । “भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानां शब्दानां एकार्थबोधकत्वं सामानाधिकरण्यम्' यह सामानाधिकरण्य का लक्षण है । भिन्न-भिन्न प्रवृत्तिनिमित्त होने पर भी जो शब्द एक ही अर्थ को बताते हों उन शब्दों में सामानाधिकरण्य रहता है और उन समानाधिकरण शब्दों से बोधित अर्थ अभिन्न होता है । "घटःसन् , पटःसन्” इत्यादि प्रयोगों में सत् शब्द और घटादिशब्द प्रयुक्त होते हैं, इसलिए इन समानाधिकरण शब्दों से बोधित 'सत्'रूप अर्थ और घट पटादिरूप अर्थ अभिन्न है, इसीलिए घटपटादिरूप अर्थ सत् रूप अर्थ से अविशिष्ट हैं। "सर्व खल्विदं ब्रह्म, आत्मैवेदं सर्वम्” इत्यादि श्रुति वाक्यों से भी पूर्वकथित अर्थ का समर्थन मिलता है । इन वाक्यों का यह अर्थ माना जाता है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से दृश्यमान ये सभी घटपटादि प्रपञ्च ब्रह्मरूप ही है, अर्थात् ब्रह्म से अभिन्न हैं । आत्मशब्द भी इन के मत में ब्रह्मरूप अर्थ का ही वाचक है। अतः इन वाक्यों से भी सभी वस्तु सत् से अविशिष्ट है ऐसा सिद्ध होता है।
भेदवादी तार्किकों की आशङ्का है कि जैसे आपने घटपटादि पदार्थो को ब्रह्म से अभिन्न सिद्ध किया है, वैसे ही घटपटादि पदार्थों में परस्पर भेद भी तो सिद्ध होता है । भेद को न स्वीकार करनेवाले आप के मत में घटपटादि पद और घटपटादि अर्थ इन में जो वैचित्र्य का व्यवहार होता है, वह कैसे होगा ? तथा घटपटादि पदार्थों का